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20 : श्रमण वर्ष 63. अंक 2 / अप्रैल-जून 2012
नामोल्लेख मिलता है।
प्रधान अंग था। "
( 14 ) विवाह संस्कार- विवाह संस्कार को न केवल भारतीय संस्कृति में वरन् अन्य संस्कृतियों में भी महत्ता प्रदान की गई है। प्रायः युवावस्था प्राप्त होने पर ही शुभ तिथि - नक्षत्र में विवाह संस्कार का आयोजन किया जाता था । यह संस्कार भी विधि-विधान व उल्लासपूर्वक मनाया जाता था। -*
वैदिक युग में वंद का अध्ययन करना शिक्षा का
( 15 ) व्रतारोपण संस्कार- जब गृहस्थ का झुकाव श्रावक जीवन की ओर आकृष्ट होता था. तब व्रतारोपण संस्कार किया जाता था। जैन अंग साहित्य" में इस संस्कार को करने वाले अनेक श्रावकों का उल्लेख मिलता हैं यथा- आनन्द, चुलणिपिता. कामदेव आदि जिन्होंने पंच अणुव्रत, ग्यारह प्रतिमा शिक्षाव्रत. गुणव्रत आदि व्रतों का पालन किया था। व्यक्ति चाहे कितना भी यश. वैभव, विद्या आदि प्राप्त कर ले, किन्तु जब तक वह धार्मिक आचरण नहीं करता है तब तक उसका जीवन व्यर्थ रहता है। अतः इस संस्कार का प्रयोजन व्यक्ति के जीवन को धर्ममय बनाना था।
( 16 ) अन्त्य संस्कार - अन्त्य संस्कार से तात्पर्य यहाँ मरण के पश्चात् शव की अन्तिम क्रिया से है। यह मानव जीवन का अन्तिम संस्कार माना जाता है। बौद्धायन धर्मसूत्र के अनुसार अंत्येष्टि संस्कार द्वारा व्यक्ति स्वर्ग को प्राप्त करता है । 30
मुनि सम्बन्धी संस्कार
(1) ब्रह्मचर्य - व्रतग्रहण विधि- ब्रह्म शब्द दो शब्दों से मिलकर बना है ब्रह्मचर्य। यहाँ ब्रह्म का अर्थ 'आत्मा' या 'परमतत्त्व' तथा चर्या का अर्थ 'रमण' करने से है। अत: आत्मा में रमण करने को ब्रह्मचर्य कहा गया है। इस संस्कार में मुनि अपनी इन्द्रियों को संयमित करता है। मुनियों के लिए यह संस्कार नितान्त आवश्यक था। इसमें तीन वर्ष की अवधि के परीक्षण में सफल होने पर ही प्रव्रज्या प्रदान की जाती थी।
( 2 ) क्षुल्लक विधि - क्षुल्लक शब्द का तात्पर्य यहाँ 'लघु' शब्द से है। प्राचीनकाल में क्षुल्लक को लघुमुनि ( सम्यक् चारित्र का पालन करने वाला) भी कहा जाता था। क्षुल्लक गुरु की आज्ञा प्राप्त कर मुनि की तरह धर्मोपदेश देते हुए तीन वर्ष की अवधि तक विचरण करते थे तथा संयम की यथावत परिकल्पना करने पर तीन वर्ष पश्चात् दीक्षा ग्रहण करते थे । 'आचारदिनकर' के अनुसार इस संस्कार का उद्देश्य प्रव्रज्या के पूर्व व्यक्ति की योग्यता का परीक्षण