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जैन जगत् : 89 महेन्द्र जी ने 48 वर्ष की अल्प आयु में वह काल कर दिखाया जो 100 वर्षों में भी नहीं किया जा सकता। अकलंक ग्रन्थत्रय से प्रारम्भ करके अकलंक के मूल ग्रन्थों का टीका के साथ जो सम्पादन किया है वह उन्हें अमर बनाया है। आपने इस थोड़ी ही आयु में अकलंक ग्रन्थत्रय आदि दर्जनों संस्कृत के प्रौढ़ ग्रन्थों की भूमिका लिखी तथा उनका वैज्ञानिक दृष्टि से समीक्षात्मक सम्पादन भी किया। 650 पृष्ठों का जैनदर्शन उनके दार्शनिक ज्ञान की परिपक्वता का परिचायक है। इनके पुत्र श्री पद्मचन्द जैन ने उनकी स्मृति को अक्षुण्ण बनाये रखने के लिए काशी हिन्दू विश्वविद्यालय में छात्रों के लिए दो स्वर्ण पदकों की व्यवस्था कीएक इन्जीनियरिंग कालेज में और दूसरा जैन-बौद्ध विभाग में। पं. दलसुख मालवणिया, स्वस्ति श्री भट्टारक चारुकीर्ति स्वामी जी, मूडबिद्री, महापण्डित श्री राहुल सांस्कृत्यायन, पं. बलभद्र जैन, डॉ. रतन पहाड़ी, सिद्धान्ताचार्य पं. फूलचन्द जैन शास्त्री, प्रज्ञाचक्षु पं. सुखलाल संघवी, डॉ. सागरमल जैन, प्रो. सुदर्शन लाल जैन आदि विद्वानों ने आपकी विद्वत्ता का लोहा स्वीकार किया है। आपके इस जन्मशताब्दी वर्ष पर पार्श्वनाथ विद्यापीठ का समस्त परिवार अपनी भावभीनी श्रद्धांजलि व्यक्त करता है।
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