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2 : श्रमण, वर्ष 63, अंक 1 / जनवरी-मार्च 2012 कर्म आठ प्रकार के हैं- 1. ज्ञानावरण, 2. दर्शनावरण, 3. वेदनीय, 4. मोहनीय, 5. आयु, 6. नाम, 7. गोत्र और 8. अन्तराय। इनमें चार (1, 2, 4 और 8) घातिया (आत्म-स्वरूप प्रतिबन्धक) और शेष चार (3, 5, 6, 7) अघातिया (साक्षात् प्रतिबन्धक नहीं) हैं। इन आठों कर्मों में सबसे प्रधान है 'मोहनीय कर्म' जो आत्म-विकास का प्रबल प्रतिबन्धक है। जैसे-जैसे मोहनीय की शक्ति घटती जाती है जीव आत्म-विकास करते हुए ऊपर की सीढ़ियों पर चढ़ता जाता है। इसके पूर्णतः नष्ट होने पर सर्वज्ञ, केवली, अर्हन्त, योगी और जीवन्मुक्त हो जाता है। आयु पूर्ण होने पर अशरीरी होकर सिद्ध-मुक्त (परमात्मा) हो जाता है। आचार्य हरिभद्र ने गुणस्थानों तथा अष्टांगयोग को ध्यान में रखकर आत्मविकास की आठ योग-दृष्टियाँ बतलायी हैं।
ओघदृष्टि और योगदृष्टि- दृष्टि (बोध) सामान्यतः दो प्रकार की है1. ओघदृष्टि (असदृष्टि) और 2. योगदृष्टि (सदृष्टि)। ओघदृष्टि विवेकशून्य तथा अन्धकाराच्छन्न दृष्टि है। सामान्य जनसमुदाय द्वारा परम्परागत मान्यताओं का बिना विचार किए स्वीकार करना ओघदृष्टि है। योगदृष्टि विवेकदृष्टि है। यदि समीचीन श्रद्धायुक्त बोध हो और असत् प्रवृत्तियों से रहित सत्प्रवृत्तियों में प्रवृत्ति हो तो उसे योगदृष्टि कहते हैं।" ये योगदृष्टियाँ यद्यपि आवरण-अपाय के कारण अनेक हैं परन्तु सामान्य से आठ हैं- 1. मित्रा, 2. तारा, 3. बला, 4. दीप्रा, 5. स्थिरा, 6. कान्ता, 7. प्रभा और 8. परा। इन आठ योगदृष्टियों में से प्रथम चार योगदृष्टियाँ प्रतिपाती हैं जो मिथ्यादृष्टियों
और सम्यग्दृष्टियों दोनों को हो सकती हैं। अन्तिम चार योगदृष्टियाँ अप्रतिपाती (वेद्यसंवेद्यपद या स्थिर) हैं तथा सम्यग्दृष्टियों को ही होती हैं। यहाँ डॉ. अर्हद्दास वन्डोवा दिगे का यह कथन कि प्रथम चार दृष्टियाँ ओघदृष्टियाँ हैं, अनुचित है क्योंकि ये प्रतिपाती (अवेद्य-संवेद्यपद या अस्थिर) तथा मिथ्यादृष्टियों को होने मात्र से ओघदृष्टियों नहीं हैं। आचार्य हरिभद्र ने स्वयं ओघ और योगदृष्टियों में अन्तर करते हुए आठों को योगदृष्टियाँ कहा है जो उचित भी है क्योंकि ये सत्संगति आदि से प्रगतिपथ पर ले जाती हैं। इन आठ योगदृष्टियों में जीव को किस प्रकार का बोध प्राप्त होता है उसे क्रमशः आठ दृष्टान्तों के द्वारा बतलाया गया है।5- 1. तृणाग्नि कण, 2. गोमयाग्नि कण = कंडे की अग्नि, 3. काष्ठाग्नि, 4. दीपप्रभा, 5. रत्नप्रभा, 6. ताराप्रभा, 7. सूर्यप्रभा और 8. चन्द्रप्रभा। जैसे इन तृणाग्नि आदि की कान्तियाँ उत्तरोत्तर स्पष्टता और स्थिरता लिये हुए हैं उसी प्रकार योगदृष्टियाँ बोध की स्पष्टता और स्थिरता लिये हुए हैं। सूर्यप्रभा की अपेक्षा जो चन्द्रप्रभा को उत्कृष्ट बतलाया है उसका कारण चन्द्रमा की शीतलता