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________________ श्रमण परम्परा : भगवान् ऋषभदेव से पार्श्वनाथ पर्यन्त साध्वी संगीत श्री जैन संस्कृति भगवान् ऋषभदेव को इस अवसर्पिणी का आद्य व्यवस्थापक, कर्मभूमि प्रवर्तक, प्रथम राजा, प्रथम मुनि, 'जिन केवली', प्रथम तीर्थकर और धर्म का आद्य प्रवर्तक मानती है। जगत् आपको ऋषभ, वृषभ, आदिनाथ, इन्द्र, विष्णु, ब्रह्म, शिवशंकर, हिरण्यगर्भ, शम्भू आदि एक हजार से अधिक नामों से पुकारता है। दशवैकालिक चूर्णि में काश्यप नाम भी दिया गया है। आचार्य समन्तभद्र और आचार्य जिनसेन ने प्रजापति एवं विश्वकर्मा, सृष्टा, विधाता नाम दिया है।' आदिपुराण में कौशलिक नाम भी है। भगवान् ऋषभ ने अपने युग की समस्या पर चिन्तन किया और कलह के मूल कारणों की खोजकर प्रजा को असि, मसि, कृषि आदि रोजगार के षट्कर्मों की शिक्षा दी। आपका ही एक अन्य नाम सिखाने के कारण जातवेद पड़ गया। विश्रृंखलित मानव समुदाय को तीन वर्णों क्षत्रिय, वैश्य एवं शूद्र में व्यवस्थापित किया तथा आद्य संस्कृति का प्रारम्भ किया। इसे ऋषभ संस्कृति भी कह सकते हैं। आद्य नरेश ऋषभ प्रथम शिक्षक व गुरु भी हैं। उन्होंने अपने पुत्र-पुत्रियों को समुचित शिक्षा के साथ ही साथ समग्र प्रजा को भी शिक्षित किया। आपने अपनी पुत्रियों को अंक (गणित एवं संगीत) तथा अक्षर (ब्राह्मी, लिपि आदि) की शिक्षा दी। आपने ज्येष्ठ पुत्र भरत को बहत्तर कलाओं एवं द्वितीय पुत्र बाहुबलि को प्राणिशास्त्र विज्ञान में पारंगत किया। प्रथम राजा वृषभदेव के प्रथम उत्तराधिकारी प्रथम चक्रवर्ती भरत के नाम पर ही जम्बूद्वीप के इस आर्यावर्त का नाम भारतवर्ष पड़ गया। श्रीमद्भागवतपुराण में ऋषभपुत्र भरत को विष्णु व नारायण बतलाया गया है। अपने 98 पुत्रों को वैराग्य एवं त्यागमय उपदेश के कारण आप प्रथम उपदेष्टा भी कहे जाते हैं। अपनी अन्तः प्रेरणा से संसार, शरीर तथा भोगों से निर्विण्ण होकर संयम एवं स्वाधीनता पथ के प्रथम पथिक बन चैत्र कृष्णा अष्टमी को उत्तराषाढा नक्षत्र में प्रव्रजित हुए भगवान् ऋषभ प्रथम मुनि, यति एवं व्रात्य नामों से प्रसिद्ध हुए।' भगवान् ऋषभ के साथ दीक्षित हुए अन्य चार हजार श्रमण उन जैसी कठोर त्यागवृत्ति नहीं अपना पाये और उन्होंने तापसी जीवन अंगीकार कर लिया। कोई वल्कलचीरि बन गए, कोई पत्र आदि का आहार करने लगे, किसी ने नग्नत्व स्वीकार किया, कोई मासोपवासी बन गए। तभी से 363 पाखण्ड (मत) प्रचलित हुए जिन्हें जैनागमों में चार प्रमुख विभागों- क्रियावाद, अक्रियावाद,
SR No.525079
Book TitleSramana 2012 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSudarshanlal Jain
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year2012
Total Pages98
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size12 MB
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