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यशस्तिलक चम्पू में आयुर्वेद सम्बन्धी विषय : 37 विलक्षण है। क्योंकि स्वास्थ्य सम्बन्धी जो सिद्धान्त आयुर्वेदशास्त्र में जिस रूप में प्रतिपादित हैं उनमें से अधिकांश प्रस्तुत काव्य में प्रतिपादित किये गए हैं, किन्तु विशेषता यह है कि कवि ने अपने काव्य-सौष्ठव एवं पदलालित्य के द्वारा विषय को अधिक सुरुचिपूर्ण ढंग से प्रस्तुत किया है।
आयुर्वेदीय स्वस्थवृत्त जैसे रुक्ष एवं गम्भीर विषय को अलंकारों की विविधता, रसों की प्रासंगिकता तथा छन्दों की सरस निबद्धता के साथ जिस प्रकार प्रस्तुत किया है उससे विषय की दुरूहता तो समाप्त हुई ही है, उसकी रोचकता में अपेक्षित वृद्धि हुई है। ग्रन्थकर्ता की काव्य-प्रतिभा का वैशिष्ट्य इसी से जाना जाता है कि यह गम्भीर और रुक्ष विषय को कितनी रोचकता एवं सरसता के साथ प्रस्तुत करता है। कविवर सोमदेव ने आयुर्वेदीय स्वस्थवृत्त-प्रतिपादन में जाति, यथासंख्य, अतिशय आदि अलंकारों का आधार लेकर ग्रन्थ के काव्य सौन्दर्य में निश्चय ही वृद्धि की है। इसी प्रकार छन्दों में अनुष्टुप, इन्द्रवज्रा, उपेन्द्रवज्रा, मालिनी, वसन्ततिलका, शार्दूलविक्रीडित, वंशस्थ आदि के द्वारा न केवल लालित्य और सरसता को द्विगुणित किया है, अपितु काव्य और काव्य में प्रतिपादित विषय को सजीव बनाने के प्रयास में मानों प्राण संचार ही किया है। इस प्रकार काव्य रचना प्रवण ग्रन्थकर्ता ने रस, छन्द और अलंकार की त्रिवेणी प्रवाहित कर जिस अद्भुत् काव्य रचना कौशल का परिचय दिया है वह अपने आप में अद्वितीय है। प्रस्तुत काव्य में आयुर्वेद की दृष्टि से विषय-प्रतिपादन और काव्य की दृष्टि से छन्द, अलंकार आदि का प्रयोग इन दोनों का मेल उनके पाण्डित्य, मर्मज्ञता एवं रसज्ञता के अद्भुत् सामंजस्य का संकेत करता है जो विरले ही व्यक्ति में पाया जाता है। इस सभी दृष्टि से यह कहा जा सकता है कि यशस्तिलक चम्पू एक ऐसा सरस एवं मनोहारी काव्य ग्रन्थ है जिसमें आयुर्वेदीय स्वस्थवृत्त का प्रतिपादन अत्यन्त व्यवस्थित ढंग से किया गया है जो ग्रन्थ की मौलिक विशेषता है। निश्चय ही आयुर्वेद के स्वस्थवृत्त जैसे विषय को काव्य रूप प्रदान कर ग्रन्थकार ने आयुर्वेद के प्रति अपना अद्वितीय योगदान किया है। इससे एक ओर जहाँ आयुर्वेद को गौरव प्राप्त हुआ है दूसरी ओर वहाँ जैनाचार्यों की आयुर्वेदज्ञता प्रमाणित हुई है। प्रस्तुत काव्यग्रन्थ में विविध विषयों का प्रामाणिक वर्णन कर श्रीमत्सोमदेव ने अपने बुद्धि-वैशिष्ट्य एवं बहुश्रुतता को निश्चय ही प्रमाणित किया है। सन्दर्भ 1. यशस्तिलकचम्पू, भारतवर्षीय अनेकान्त विद्वत् परिषद्, 3/368 2. वही, श्लोक 3/371-372