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________________ 34 : श्रमण, वर्ष 63, अंक 1 / जनवरी-मार्च 2012 स्वास्थ्य हित की दृष्टि से भोजन के पश्चात् उपर्युक्त सावधानी का निर्देश करते . हुए श्रीमत्सोमदेव ने मनुष्य के वैयक्तिक स्वास्थ्य के प्रति जिस सजगता का परिचय दिया है वह उनके मानसिक एवं बौद्धिक चिन्तन का परिणाम है। क्योंकि भोजन में और भोजन के पश्चात् यदि अपेक्षित सावधानी नहीं बरती जाती है और निरन्तर अपथ्य का आचरण किया जाता है तो कालान्तर में गम्भीर विकारोत्पत्ति रूप परिणाम भुगतना पड़ सकता है जो स्वास्थ्य के लिए अनुकूल नहीं होने से अपाय कारक है। रात्रि-शयन या निद्रा सोमदेव ने सुखपूर्वक पर्याप्त निद्रा को स्वास्थ्य के लिए अत्यावश्यक एवं उपयोगी बतलाया है। उनके अनुसार सुख की नींद सोकर जगने पर मन और इन्द्रियाँ प्रसन्न हो जाती हैं, पेट हल्का हो जाता है और पाचन क्रिया ठीक रहती है। यथाअधिगतसुखनिद्रः सुप्रसन्नेन्द्रियात्मा सुलधुजठरवृत्ति भुक्तपक्तिं दधानः। इसी भॉति जिस प्रकार खुली स्थाली (पाक पात्र) में अन्न ठीक से नहीं पकता उसी प्रकार पर्याप्त नींद लिये बिना और व्यायामहीन मनुष्य के भोजन का सम्यक् परिपाक नहीं होता। यथास्थाल्यां यथा नावरणाननायामपहितायां च न साधुपाकः । अनाप्तनिद्रस्य तथा नरेन्द्र व्यायामही नत्थ च नान्नपाकः।।" वेगावरोध का परिणाम शौच या मूत्र-विसर्जन की बाधा होने पर उसकी निवृत्ति शीघ्र कर लेनी चाहिए। मल और मूत्र का वेग रोकने से भगन्दर व्याधि उत्पन्न हो जाती है। यथाभगन्दरी स्थन्दविबन्धकाले।" अभ्यंग और उद्वर्तन प्राचीन काल में शरीर की तेल से मालिश करने के लिए अभ्यंग शब्द का व्यवहार किया जाता था। आयुर्वेद में भी अभ्यंग शब्द ही प्रयुक्त किया गया है। सोमदेव के अनुसार अभ्यंग श्रम और वायु को दूर करता है, बल को बढ़ाता है तथा शरीर की दृढ़ता को दूर करता है। यथाअभ्यंगः श्रमवातहः बलकरः कायस्थ दादर्यावहः।" उद्वर्तन या उबटन शरीर में कान्ति बढ़ाता है, भेद, कफ व आलस्य को दूर करता है- स्यादुद्वर्तनमंगकान्तिकरणं भेदः कफालस्यजित्।३०
SR No.525079
Book TitleSramana 2012 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSudarshanlal Jain
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year2012
Total Pages98
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size12 MB
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