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यशस्तिलक चम्पू में आयुर्वेद : 31 जाता है जो शारदीय, विमल और पवित्र होता है। यह हंसोदक स्नान, पान-अवगाहन में अमृतवत् प्रशस्त होता है।
महर्षि चरक के इस हंसोदक जल तथा आचार्य वाग्भटोक्त' हंसोदक जल की निर्माण विधि का अनुसरण करते हुए ही आचार्य सोमदेव ने "सूर्येन्दु संसिद्ध जल" का कथन किया है। अतः दोनों में केवल नाम का अन्तर समझना चाहिए, निर्माण विधि आदि में कोई अन्तर नहीं है। इस सन्दर्भ में इतना अवश्य ध्यान देने योग्य है कि आयुर्वेदीय ग्रन्थों में हंसोदक जल के सेवन का उल्लेख मात्र शरद ऋतु में है जबकि यशस्तिलक में " सूर्येन्दु संसिद्ध जल" के सेवन के लिए किसी ऋतु विशेष का उल्लेख नहीं है।
आयुर्वेदशास्त्र में प्रतिपादित है कि वात-पित्त-कफ ये तीन दोष मानव शरीर के लिए अति महत्त्वपूर्ण हैं और इनसे मनुष्य की प्रकृति का निर्माण होता है । शरीर में ऋतुओं के अनुसार इन दोषों का संचय, प्रकोप और प्रशमन स्वत: ही होता रहता है। यशस्तिलक में इनका सुन्दर विवेचन किया गया है जो निम्न प्रकार हैशिशिर सुरभिघर्मेस्वतपाम्भः शरत्सु क्षितिपजल शरदहेमन्तकालेषु क्षैते । कफपवनहुताशाः संचयं च प्रकोपं प्रशममिह भजन्ते जन्मभाजां क्रमेण । । * उपर्युक्त श्लोक का सारांश निम्न प्रकार से समझा जा सकता है
दोष
संचय
प्रकोप
कफ
शिशिर
ग्रीष्म
वर्षा
वसन्त
वर्षा
प्रशमन
ग्रीष्म
वात
शरद
पित्त
शरद
हेमन्त
वातादि दोषों के उपर्युक्त प्रकार से संचय, प्रकोप और प्रशमन को ध्यान में रखते हुए लोगों को अपने खान-पान की व्यवस्था करनी चाहिए और उसपर पूरा ध्यान देना चाहिए। अतः किस ऋतु में किस प्रकार का आहार उचित है - इसका निर्देश भी यशस्तिलक' में सुन्दर ढंग से किया गया है जो निम्न प्रकार हैखाद्य-पेय रस
ऋतु
शरद- स्वादु (मधुर) तिक्त, कषाय रस प्रधान आहार । वर्षा - मधुर, अम्ल, लवण रस प्रधान आहार ।
वसन्त- तीक्ष्ण, तिक्त, कषाय रस प्रधान आहार ।
ग्रीष्म- प्रशम रस वाला आहार ।
इसी प्रकार ऋतु के अनुसार खाद्य-पेय सामग्री का निर्देश भी सोमदेव ने बड़े अच्छे ढंग से किया है।