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________________ भेदविज्ञान द्वारा श्रावक - लोभसंवरण: 23 इसी भेदज्ञान के सतत अभ्यास से ही जीव को आत्मा से पर पदार्थों का भेद ज्ञात होता है। कविवर बनारसीदास "ने समयसार नाटक में यह कहा है कि भेदविज्ञान का आलम्बन जीव को सांसारिक पदार्थों से ऐसे पृथक् कर देता है जैसे अग्नि स्वर्ण को किट्टका से पृथक् कर देती है। इष्टोपदेश 7 के अनुसार स्व-पर पदार्थों के भेद - ज्ञान के निरन्तर अभ्यास से जैसे-जैसे आत्मा का स्वरूप विकसित होता जाता है वैसे- वैसे ही सहज प्राप्त रमणीय पंचेन्द्रिय विषय भी अरुचिकर प्रतीत होते हैं। यदि श्रावक आचार्य कुन्दकुन्द विरचित नियमसार की वृत्ति में निर्दिष्ट उपदेशों का अनुसरण करे, सदैव इनका अवलम्बन करे- मैं राग रूप नहीं हूँ, द्वेष रूप नहीं हूँ, मोह रूप नहीं हूँ। क्रोध रूप नहीं हूँ। माया रूप नहीं हूँ। मैं विविध विकल्पों - भेदों से व्याप्त सभी विभाव पर्याय का निश्चय नय से करने वाला नहीं हूँ और करने वाले पुद्गल कर्मों का अनुमोदन करने वाला नही हूँ। मैं तो चित्-चैतन्य स्वरूप अपनी शुद्धात्मा का ही अनुभव करने वाला हूँ। इस प्रकार चिन्तन करते-करते सारे परभाव नष्ट हो जायेंगे । आचार्य गुणभद्र ने आत्मानुशासन में कहा है कि विवेकी जीव को चिर काल से परिचित इस शरीर में भी अत्यन्त निस्पृह होकर सुख-दुःख एवं जीवन-मरण आदि में सम होकर निरन्तर सद्ध्यान द्वारा परभावों का शमन करना चाहिए । जिसने ऐश्वर्य, पद-प्रतिष्ठा एवं सभी परिग्रहों को पर के रूप में जान लिया उसके लिए ममत्व या राग का कोई प्रयोजन नहीं है। भेद ज्ञान के परिणाम के सम्बन्ध में प्रो. सागरमल जैन" का यह मन्तव्य युक्तिसंगत है कि ज्ञान के स्तर पर तो स्व-पर का ज्ञान कठिन नहीं है। किन्तु अनुभूति के स्तर पर स्व- पर की भिन्नता स्थापित करना सरल नहीं है। प्रो. जैन के शब्दों में शरीर से, मनोवृत्तियों से और स्वयं के रागादि भावों से अपनी भिन्नता का बोध कराना अपेक्षाकृत कठिन से कठिनतर हो जाता है। मोक्ष एवं मोक्ष साधनों के प्रति राग कथंचित् इष्टआत्मानुशासन" के अनुसार अज्ञानरूपी अन्धकार को नष्ट कर देने वाले प्राणी के जो तप और शास्त्रविषयक अनुराग होता है वह सूर्य की प्रभातकालीन लालिमा के समान उसके अभ्युदय के लिए होता है। योगीन्दुदेव ने परमात्मप्रकाश में कहा है- तू परमपवित्र मोक्ष मार्ग में प्रीतिकर - सिव पहि णिम्मलि करहि रह । भेदज्ञान की महत्ता बताते हुए आचार्य अमृतचन्द्रसूरि ने कहा है कि जो कोई कर्म से बंधे हैं वे इसी भेदविज्ञान के अभाव में ।
SR No.525079
Book TitleSramana 2012 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSudarshanlal Jain
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year2012
Total Pages98
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size12 MB
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