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20 : श्रमण, वर्ष 63, अंक 1 / जनवरी-मार्च 2012 टीका में कहा गया है- जिसने आशा को दासी बना लिया है उसने सम्पूर्ण जगत् को दास बना लिया है परन्तु जो आशा का दास है वह सभी जीवों का दास है। इस प्रकार निष्कर्ष रूप में कहा जा सकता है कि लोभ आदि को उत्पन्न करने वाला जो कोई पदार्थ है उनका त्याग करने से लोभ पर विजय प्राप्त होती है। इन बाह्य वस्तुओं का त्याग लोभादि निवृत्ति है। अतः अवश्य ही बाह्य वस्तुओं का परित्याग करना चाहिए। निर्लोभता के उपाय लोभ को जीतने का सबसे महत्त्वपूर्ण उपाय है- सन्तोष। दशवैकालिक" में कहा गया है- लोभ को सन्तोष से जीतना चाहिये। लोभ के जीतने से व्यक्ति निर्भीक एवं स्वतन्त्र बनता है। आचारांगसूत्र में कहा गया है अलोभ से लोभ को पराजित करता हुआ साधक काम-विषयों के प्राप्त होने पर भी उनका सेवन नहीं करता। अर्थात् आत्मा को अपने स्वाभाविक गुण सन्तोष के द्वारा लोभ पर विजय प्राप्त करना चाहिए साथ ही श्रावक के लिए यह आवश्यक है कि धर्मपूर्वक अपनी आजीविका ग्रहण करे। सूत्रकृतांग में कहा भी गया है- निश्चितरूप से धर्मपूर्वक अपनी आजीविका ग्रहण करने वाला सद्गृहस्थ होता है। धर्मपूर्वक आजीविका ग्रहण करने से समस्त प्राणियों के प्रति समभाव उत्पन्न होता है। सूत्रकृतांग73 में ही यह भी कहा गया है कि संसार के समस्त जीवों के प्रति समता की भावना रखने वाले की लोभ की प्रवृत्ति कम होती है तथा आत्म रूपी तुला पर सभी को रखने से समभाव की दृष्टि उत्पन्न होती है तथा तृष्णा भाव की समाप्ति भी होती है। उत्तराध्ययनसूत्र के अनुसार लोभ को नष्ट करने के लिए मोह को नष्ट करना चाहिए। जिसके मोह नहीं उसने दुःख को नष्ट कर दिया, जिसके तृष्णा नहीं उसने मोह को नष्ट कर दिया। जिसके लोभ नहीं उसने तृष्णा को नष्ट कर दिया जिसके पास कुछ भी नही है उसने लोभ को नष्ट कर दिया। उत्तराध्ययन में कहा गया है कि छन्द अर्थात् इच्छा के निरोध से मुक्ति होती है इसलिए इच्छाओं पर नियन्त्रण आवश्यक है। इस प्रसंग में यह भी विचारणीय है कि आत्मा के स्वाभाविक गुण क्या हैं और विभाव या परभाव क्या हैं। स्वभाव एवं विभाव का पृथक्त्व की भेदज्ञान ही साधना का मूल है। धवला” में कहा गया है कि ज्ञान, दर्शन, संयम, सम्यक्त्व, क्षमा, मृदुता, आर्जव, सन्तोष और विरामादि जीव के स्वभाव हैं। इसके विपरीत कषाय, प्रमाद, असंयम, अज्ञान, मिथ्यात्व, जीव के गुण नहीं हैं इनका विवेक होना चाहिए। अनादि काल से जीव संसार रूपी आवर्त में फंसकर दुःख उठा रहा है। मिथ्यात्ववश जीव तत्त्व-स्वरूप