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________________ 18 : श्रमण, वर्ष 63, अंक 1 / जनवरी-मार्च 2012 जैसे- जैसे इच्छा की पूर्ति होती जाती है, वैसे-वैसे लोभ भी निरन्तर बढ़ता जाता है। जहां लाभ होता है वहीं लोभ होता है। अर्थात् जैसे-जैसे लाभ बढ़ता जाता है वैसे-वैसे लोभ वृद्धि को प्राप्त होता है। उत्तराध्ययन में दृष्टान्त दिया गया है कि इस संसार में धन-धान्य आदि से परिपूर्ण लोक के दाता से भी लोभ वृत्ति संतुष्ट नही होती । मुझे इतना दे दिया फिर भी वह सन्तुष्ट नहीं होता है वैसे ही व्यक्ति सबकुछ प्राप्त करने पर भी तृप्त नहीं होता है।। जैन आगमों में भी लोभ के प्रकारों और उनसे होने वाले भयंकर दुष्परिणामों का वर्णन मिलता है। स्थानांगसूत्र में लोभ के चार प्रकारों को चार वर्णों के माध्यम से स्पष्ट किया गया है-कृमिरागरक्त, कर्दमरागरक्त, खञ्जनरागरक्त एवं हरिद्वारागरक्त। कृमिरागरक्त अर्थात् कृमियों के रक्त से रंगे हुए वस्त्र के समान अत्यन्त कठिनाई से छूटने वाला अनन्तानुबन्धी लोभ। कर्दमरागरक्त- कीचड़ से मलिनता को प्राप्त वस्त्र की भाति कठिनाई से स्वच्छ होने वाला अप्रत्याख्यानावरण लोभ। खजनरागरक्त अर्थात् काजल के रंग से रंगे हुए वस्त्र के समान थोड़ी कठिनाई से छूटने वाला प्रत्याख्यानावरण लोभ। हरिद्रारागरक्त- हल्दी के राग से रंगे हुए वस्त्र के समान सरलता से छूटने वाला संज्वलन लोभ। उक्त चारों प्रकार के लोभ वश जीव क्रमशः नारक, तिर्यच, मनुष्य और देव योनि में उत्पन्न होता है। लोभ-कषाय के दुर्गुण लोभ के उत्पन्न होते ही व्यक्ति सद्-असद् विवेक को खो देता है। आचारांगसूत्र में आशा, तृष्णा, रति और इच्छा को काम भोग में परिगणित किया गया है -कामा दुरतिक्कमा अर्थात् काम या इच्छा दुर्लध्य है। जब व्यक्ति कामना करता है, परितृप्त नहीं होने पर शोक करता है। जिससे शरीर सूख जाता है, आंसू बहते हैं, अनन्त पीड़ा और परिताप भी उत्पन्न होता है। स्थानांग के अनुसार मजीठे के रंग के समान जीवन में कभी नहीं छूटने वाला लोभ आत्मा को नरक गति की ओर ले जाता है। आचारांग' में कहा गया है कि लोभी व्यक्ति लोभ के प्रसंग में झूठ का आश्रय ग्रहण कर लेता है। दशवैकालिकसूत्र में लोभ को सभी गुणों के विनाश का कारण भी कहा गया है। अमरुक ने कहा है कि यदि व्यक्ति के मन में लोभ है तो सारे गुण व्यर्थ हैं उसे दुर्गुणों की क्या आवश्यकता है अर्थात् अकेले लोभ समस्त दुर्गुणों को निष्प्रभावी बनाने के लिए पर्याप्त है। लोभ के कारण मतिभ्रष्ट व्यक्ति माता, पिता, पुत्र, सहोदर या स्वामी सबको मार डालता है। विभिन्न जैन ग्रन्थों में लोभ क कारण होने वाले दुष्प्रभावों का वर्णन किया गया
SR No.525079
Book TitleSramana 2012 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSudarshanlal Jain
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year2012
Total Pages98
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size12 MB
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