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________________ विपाकसूत्र में वर्णित चिकित्सा-विज्ञान : ३७ रोग/व्याधि के प्रकार या नाम-रोग या व्याधियाँ अनेक हैं। अतः उनकी परिगणना सम्भव नहीं है तथापि 'विपाकसूत्र' में मुख्य एवं असाध्य रोगों का स्थान-स्थान पर वर्णन है। विशेष रूप से मृगापुत्र, उम्बरदत्त और अंजूदेवी अध्ययनों में तथा प्रसंगवश उज्झितदारक अध्ययन में विजयमित्र नामक महीपाल की श्रीदेवी के रोगग्रस्त होने का वर्णन है, यथा- १. सासे (श्वास= दम फूलना या दमा), २. कासे (कास= कफ बढ़ना या खाँसी आदि), ३. जरे (ज्वर= बुखार या ताप), ४. दाहे (दाह= शरीर में जलन होना), ५. कुच्छिले (कुक्षिशूल= वृद्धिगत वायु से ह्रदय, पार्श्व, पृष्ठ आदि में पीड़ा होना), ६. भगन्दरे (भगन्दर= गुह्य स्थान या अण्डकोश के मध्यवर्ती स्थान को जो विदीर्ण करे), ७. अरिसा (अर्श= बवासीर या गुदा में मस्सों का होना), ८. अजीरए (अजीर्ण= भुक्त भोजन का पाचन न होना), ९. दिट्ठी (दृष्टिशूल= नेत्र लाल होना), १०. मुद्धसूले (मूर्धशूल= मस्तक पीड़ा), ११. अरोयए (अरोचक= भोजन में अरुचि), १२. अच्छिवेयणा (अभिवेदना= नेत्र पीड़ा), १३. कन्नवेयणा (कर्णशूल= कर्णवेदना), १४. कंडू (कण्डू= खुजली), १५. उदरे (उदकोदर जलोदर, पेट का फूलना) और १६. कोढ ( कुष्ठ =कोढ़)।१० अन्यत्र रोगों के अन्य नाम भी मिलते हैंशोफवान् (शरीर का सूजना), शूनमुख (सूजे मुख वाला), शटितहस्तांगुलि (हाथ की अंगुलियों का सड़ना), शटितपादांगुलि (सड़े पैरांगुलिवाला), शटितकर्णनासिका (सड़े कान-नाक वाला), रसी- पीव बहना, घाव में कीड़े बुलबुलाना, मुख से लार टपकना, पीब के कुल्ले करना, खून के कवल, कीट कवल, अग्निकव्याधि (भस्मक रोग), योनिशूल' आदि। योनिशूल रोग केवल स्त्रियों को ही होता है। उपर्युक्त सभी रोगों को आयुर्वेद में लक्षण एवं उपचारविधि की दृष्टि से आठ भागों में विभाजित किया गया है जिन्हें अष्टाङ्ग कहते हैं - १. कौमार भृत्य, २. शलाक्य (नाक, कान और मुख के रोगों का उपचार), ३. शाल्यहत्य (शल्य निकालने की विधि का वर्णन), ४. कायचिकित्सा (ज्वरादि उपचार), ५. जांगुल (सर्प, कीटादि विषैले जन्तुओं के विष उतारने की विधि), ६. भूतविद्या (मानसिक रोगोपशमन विधि), ७. रसायन (आयुरक्षक, मेधावर्धक और रोग दूर करने के रसायन निर्माणविधि और प्रयोगविधि), ८. वाजीकरण (वीर्यवृद्धि के उपायों का निरूपण) में विभाजित किया गया है, जिन्हें अष्टाङ्ग कहा जाता है।१२ । रोगियों के प्रकार जितने रोग होते हैं उनके आधार पर रोगी भी अनेकविध होते हैं। परन्तु 'विपाकसूत्र' में मुख्यतया रोगी कितने प्रकार के होते हैं, उनका भी निरूपण देखने को मिलता
SR No.525076
Book TitleSramana 2011 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSundarshanlal Jain, Shreeprakash Pandey
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year2011
Total Pages120
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size13 MB
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