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________________ २६ : श्रमण, वर्ष ६२, अंक २ / अप्रैल-जून-२०११ बात आती है वह तो रागादि मिटाने के लिए है और रागादि के हटने पर सम्यग्दर्शन होता है अर्थात् यम, नियमादि परम्परया कारण हैं। वस्तुत: सच्चे देव/ शास्त्र/ गुरु के माध्यम से जीवादि सात तत्त्वों की सही-सही जानकारी प्राप्त करें, पश्चात् उसे स्वयं तर्क-युक्ति के द्वारा अनाग्रही भाव से परीक्षा करके स्वीकार करें, तभी सात तत्त्वों का समीचीन ज्ञान एवं श्रद्धान हो सकता है। इस प्रकार सम्यग्दर्शन की प्राप्ति हेतु जीवादि सात तत्त्वों के समीचीन ज्ञान हेतु निरन्तर अध्ययन-मनन चिन्तन-परीक्षण रूप प्रयत्न करते रहना चाहिये। इसी से एक दिन दर्शनमोहनीय कर्म (मिथ्यात्व) का उपशम या क्षयोपशम या क्षय होकर उपशम या क्षयोपशम या क्षायिक सम्यग्दर्शन की प्राप्ति होती है। सम्यग्दर्शन यदि क्षयात्मक (क्षणिक सम्यग्दर्शन) है तब तो वह कृतकृत्य हुआ समझो। यदि उपशमात्मक है तो उसका पतन भी निश्चित है। हाँ यह अवश्य है कि वह कालान्तर में पुन: सम्यग्दर्शन प्राप्त करके रत्नत्रय पूर्ण कर लेता है। प्रश्न- अच्छा अब अन्त में एक प्रश्न का उत्तर और दीजिए। बहुत से लोग कहते हैं कि किसी अन्य धर्म के साधु या देव को नमस्कार करने से सम्यग्दर्शन नष्ट हो जाता है- क्या यह सत्य है? उत्तर- देखिए, आचार्य कुन्दकुन्द ने (समयसार, गाथा २२० से २२३ तक में) इस प्रश्न का भी बड़ा अच्छा उत्तर दिया है कि शंख चाहे काली मिट्टी खाये या पीली मिट्टी खाये, पर उससे वह काला या पीला नहीं होता तथा जब उसे काला/ पीला होना होता है तो बिना काली/पीली मिट्टी खाकर ही हो जाता है। इसी प्रकार सम्यग्दर्शन का सम्बन्ध वस्तुत: अन्तरंग श्रद्धा से है। जबतक वह श्रद्धा सही है तबतक सम्यग्दर्शन कदापि नष्ट नहीं होता और यदि मिथ्या हो गई तो सम्यग्दर्शन को नष्ट होने से कोई नहीं रोक सकता। सम्यग्दर्शन का सम्बन्ध बाह्य क्रिया से नहीं है, तथापि उपचार से शास्त्रों में इसप्रकार के कथन पाए जाते हैं कि रागीद्वेषी देव-शास्त्र-गुरु को प्रणामादि करने से सम्यग्दर्शन नष्ट हो जाता है। रागी-द्वेषी देव-शास्त्र-गुरु को प्रणामादि करने से अपनी श्रद्धा में राग-द्वेष में उपादेयबुद्धि जागृत होने की सम्भावना रहती है, इसलिए सम्यग्दृष्टि जीव भय, आशा, स्नेहादि कारणों से भी रागी-द्वेषी देव-शास्त्र-गुरु को प्रणामादि करने से बचते हैं। शिष्टाचार या लोकाचार के वश कुछ करना पड़े तो उसे वे अपना अतिचार मानते हैं।' इस तरह कुन्दकुन्दाचार्य ने सम्यग्दर्शन के महत्त्व को प्रकट किया है परन्तु इसका तात्पर्य यह नहीं है कि ज्ञान और चारित्र की उपेक्षा की है। वस्तुतः समदर्शन से ही ज्ञान और चारित्र में सम्यक्पना आता है। अतः रत्नत्रय ही मुक्ति का मार्ग है।
SR No.525076
Book TitleSramana 2011 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSundarshanlal Jain, Shreeprakash Pandey
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year2011
Total Pages120
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size13 MB
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