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श्रमण, वर्ष ६०, अंक १ जनवरी-मार्च २००९
पूर्व-मध्यकालीन जैन अभिलेखों में वर्णित समाज
मंजु कश्यप
पूर्व-मध्यकाल में जैन धर्म से सम्बन्धित लोगों द्वारा मध्यकालीन जैन अभिलेखों के अध्ययन से विदित होता है अनेक अभिलेख उत्कीर्ण कराये गये, जिनमें से अधिकांश कि व्यक्तियों की जातियां उनके पारिवारिक व्यवसायों से अभिलेख प्रकाशित हो चुके हैं। जैन धर्म से सम्बन्धित सम्बद्ध थीं तथा उस समय वे अत्यन्त महत्त्वपूर्ण बन गयी बहसंख्यक अभिलेख जैन शिलालेख संग्रह में संग्रहीत हैं। इन थी, जबकि सामाजिक सम्बन्धों में वर्ण-व्यवस्था का महत्त्व अभिलेखों के अध्ययन से विदित होता है कि इनमें सामाजिक अपेक्षाकृत कम हो गया था। सम्भवतः यही कारण रहा होगा गतिविधियों की जानकारी अत्यल्प है, परन्तु जितनी भी सूचनायें जिससे जैन अभिलेखों में दानकर्ताओं के वर्गों का उल्लेख न मिलती हैं वे जैन समाज के अध्ययन हेतु महत्त्वपूर्ण हैं। अतः होकर इनके पद तथा जातियों का उल्लेख मिलता है। जैन अभिलेखों के आलोक में जैन समाज का निदर्शन वांछनीय जैन ग्रन्थों में चतुर्वर्ण के अन्तर्गत उल्लेखित ब्राह्मण है। जैन धर्म से सम्बन्धित अधिकांश अभिलेख दानात्मक या को श्रमणों के समकक्ष श्रेष्ठ माना गया है। जैन आगमों में समर्पणात्मक हैं, जिनमें दानकर्ताओं के नाम का उल्लेख तो श्रमण माहन (माहण) का उल्लेख हुआ है, परन्तु यहाँ है, साथ ही उनकी जाति तथा व्यवसाय का भी उल्लेख किया ब्राह्मणों को श्रमणों के समकक्ष मानना उनकी आचारगत गया है। इसके अतिरिक्त किसी-किसी अभिलेख से दान में श्रेष्ठता पर आधारित था न कि जन्मगत श्रेष्ठता पर। ब्राह्मण दी गयी वस्तुओं से भी समकालीन व्यवसाय तथा उद्योग पर कहलाने का अधिकारी कौन है? इसकी विस्तृत व्याख्या जैन प्रकाश पड़ता है, परन्तु इस तरह की सूचनायें इतनी अत्यल्प ग्रन्थ 'उत्तराध्ययनसूत्र' में मिलती है, जिससे स्पष्ट होता है हैं कि इसके आधार पर सामाजिक संगठन एवं विभिन्न वर्गों कि सदाचारी ब्राह्मण तथा श्रमण के लक्षण समान थे और के बीच पारस्परिक सम्बन्धों की व्याख्या करना कठिन है, इसी कारण सदाचारी ब्राह्मण को श्रमण के समकक्ष माना गया फिर भी कुछ सूचनायें ऐसी हैं, जिनके आधार पर विभिन्न था। जैन ग्रन्थ ब्राह्मण की जातिगत श्रेष्ठता को स्वीकार नहीं सामाजिक आर्थिक वर्गों का जैन धर्म के प्रति आकर्षण को करते। कल्पसूत्र में महावीर स्वामी के गर्भ परिर्वतन के सन्दर्भ संक्षेप में रेखांकित किया जा सकता है। ऐसे श्री नारायण दूबे में क्षत्रिय जाति को ब्राह्मण जाति की अपेक्षा श्रेष्ठ बताया गया ने अपने अध्ययन 'जैन अभिलेखों का सांस्कृतिक अध्ययन' है। इस घटना का अंकन मथुरा के पुरातात्त्विक स्रोतों में भी में इसकी विस्तृत चर्चा की है।
मिलता है। जैन अभिलेखों में ब्राह्मण जाति का उल्लेख न तो __ जैन ग्रन्थों में उल्लेखित बंभण, खत्तिय, वइस्स तथा दानदाता के रूप में है, न दानकर्ता के रूप में। ब्राह्मण जाति सुद्द' से ज्ञात होता है कि जैन परम्परा ने ब्राह्मण परम्परा द्वारा सामान्यत: दान देने की अपेक्षा दान लेने में विश्वास करती स्वीकृत वर्ण-व्यवस्था को किसी न किसी रूप में स्वीकार थी, जिसके कारण ब्राह्मणों द्वारा श्रमणों को दान देने का किया था, परन्तु उन्होंने इसे जन्मना न मानकर कर्मणा माना उल्लेख नहीं मिलता, जबकि जैन धर्मानुयायी सामान्यतः था। जैन ग्रन्थों के विपरीत जैन अभिलेखों में इन चार सामाजिक अपना दान जिनमन्दिर या श्रमणों को समर्पित करते थे। अत: वर्णों का उल्लेख न होकर दानकर्ताओं के राजनीतिक पद या जैन अभिलेखों में ब्राह्मण जाति का उल्लेख नगण्यप्राय है, उनकी व्यावसायिक जातियों का उल्लेख मिलता है, जो तत्कालीनः परन्तु एक दुर्लभ अभिलेख है, जिसमें ब्राह्मणों को दान देने सामाजिक संगठन के स्वरूप को प्रदर्शित करता है। पूर्व- का उल्लेख मिलता है।
*शोध छात्रा, इतिहास विभाग, महात्मा गांधी काशी विद्यापीठ, वाराणसी