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श्रमण, वर्ष ६०, अंक १/जनवरी-मार्च २००९
खडगधार चारित्र खरो चढे धरा लग बात। गच्छधोरी गाजे गुहिर विमलचंद्र वडवार, पट्टोधरण प्रगटीयो जयचंद्र जगे आधार। जे राजा परजाह जे सहुके नामे शीष,
जयचंद आयो जोधपुर पुगी सवहि जगीस। अर्थात्
पार्श्वचन्द्रसूरि
समरचन्द्रसूरि
६. शांतिनाथजिनस्तवन ७. ब्रह्मचारी ८. उपदेशसाररत्नकोश ९. ऋषभस्तव १०.कल्याणस्तव ११.शंखेश्वरस्तव १२.नेमिस्तव
अपनी कृतियों की प्रशस्तियों में इन्होंने अपने गरु पार्श्वचन्द्रसूरि का सादर स्मरण किया है।
पार्श्वचन्द्रसूरि के दूसरे शिष्य विनयदेवसूरि हुए जिनसे सुधर्मगच्छ अस्तित्त्व में आया। विनयदेवसूरि के प्रशिष्यमनजी ऋषि ने वि०सं० १६४६ में विनयदेवसूरिरास की रचना की।
पार्श्वचन्द्रगच्छ से सम्बद्ध अन्य साहित्यिक साक्ष्यों का विवरण इस प्रकार है।
सम्यकत्त्वकौमुदीरास - वि०सं० १६४२ में रची गयी इस कृति के रचनाकार के रूप में वच्छराज नामक मुनि का उल्लेख मिलता है। मरु-गूर्जर भाषा में रचित उक्त कृति की प्रशस्ति में रचनाकार ने अपने गच्छ, गुरु-परम्परा, रचनाकाल आदि का सुन्दर विवरण दिया है, जो निम्नानुसार है:
पार्श्वचन्द्रसूरि
राजचंद्रसूरि
विमलचन्द्रसूरि
जयचन्द्रसूरि (वि०सं० १७वीं शती के तृतीय चरण
आस-पास पार्श्वचन्द्रसूरिना सैंतालिसदूहा के रचनाकार)
इनके द्वारा रचित राजरत्नरास (वि०सं० १६५४), रायचंद्रसूरिरास आदि कृतियां भी मिलती हैं।
आरामशोभाचरित्र के रचनाकार पूंजाऋषि भी इसी गच्छ के थे। अपनी उक्त कृति की प्रशस्ति में उन्होंने अपनी गुरु-परम्परा एवं रचनाकाल आदि का निर्देश किया है. जो इस प्रकार है:
पार्श्वचन्द्रसूरि
समरचन्द्रसूरि
राजचन्द्रसूरि
वाचक रत्नचारित्र
समरचन्द्रसूरि
रायचन्द्रसूरि
हंसचन्द्रसूरि
ऋषि वच्छराज (वि०सं० १६४२ में सम्यकत्त्वकौमुदीरास
के रचनाकार) ऋषि वच्छराज द्वारा रचित नीतिशास्त्रपंचाख्यान अपरनाम पंचतंत्रचौपाई (रचनाकाल वि०सं० १६४८) नामक एक अन्य कृति भी प्राप्त होती है।
पार्श्वचन्द्रसूरिना ४७ दोहा - पार्श्वचन्द्रगच्छीय जयचंन्द्रसूरि द्वारा रचित इस कृति की प्रशस्ति में रचनाकार ने अपनी गुरु-परम्परा का विवरण दिया है, जो इस प्रकार है :
पार्श्वचंद पट्टोधरण, रामचंद्र गुरु सूर, परेत गुरुने पालीया पंच महाव्रत पूर। समरचंद्र गुरु सारिखा, राजचंद्र तिणरात,
पूंजाऋषि (वि०सं० १६५२/ई०स० १५९६ में आराम
शोभाचरित्र के रचनाकार) वि०सं० १६६३/ई० सन् १६०७ में रचित अंजनासुन्दरीरास की प्रशस्ति से ज्ञात होता है कि इसके रचनाकार विमलचारित्र भी इसी गच्छ से सम्बद्ध थे। इसकी प्रशस्ति में उन्होंने अपनी गुरु-परम्परा दी है, जो निम्नानुसार है: