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सामाजिक नैतिकता के सन्दर्भ में कर्म-सिद्धान्त का स्वरूप
है कि अशुभ कर्म पाप और शुभ कर्म पुण्य कहे जाते हैं, फिर सकता। जो भी सामाजिक कार्य अन्य लोगों द्वारा होते हैं उनमें भी पण्य कर्म संसार का कारण है जिस प्रकार स्वर्ण की बेडी स्वार्थ-दष्टि रहती है. परन्त गीता की मान्यता है कि लोकसंग्रही भी लौह बेड़ी के समान ही व्यक्ति को बन्धन में रखती है, उसी वही हो सकता है जो गुणातीत या स्थितप्रज्ञ है। गीता का यह प्रकार जीवकृत सभी शुभ-अशुभ कर्म बन्धन के कारण हैं।७ सर्वोच्च नैतिक दर्शन है। सामाजिक निर्माण और सुरक्षा की लेकिन शुभ कर्म तभी तक बन्धन के कारण हैं जब तक हमारी दृष्टि से ही विभिन्न स्वभाव और प्रकृति वालों के लिए गीता में उनके प्रति आसक्ति होती है। जब वही शुभ कर्म अनासक्त भाव सामाजिक नैतिकता का निर्माण किया गया है तथा कहा गया से किये जाते हैं तब वे शुद्ध कर्म बन जाते हैं और सही माने है कि व्यक्ति को 'स्वधर्म का पालन चाहे जितनी भी कठिनाई में वहीअकर्म है। जैन चिन्तनकायहअकर्मयाईर्यापथिक कर्म क्यों न हो, अवश्य करना चाहिये। परधर्म अर्थात् जो अपने ही गीता का अनासक्त कर्म है।
स्वभाव और प्रकृति के अनुरूप कर्म नहीं है, सरल और कर्म की एक दूसरी व्याख्या जिसमें गुण की प्रधानता। सुलभ होते हुए भी भयावह है।२२ गीता के स्वधर्म अथवा है और जिसके आधार पर भारतीय परम्परा में वर्ण-व्यवस्था स्वभाव धर्म को परम्परागत जाति धर्म से बिल्कुल अलग (स्वधर्म) की स्थापना की गई है, वैदिक और जैन दोनों समझना चाहिए। वर्ण-व्यवस्था को जन्मना मान लेना गीता परम्पराओं में मिलती है। वर्ण-व्यवस्था का उल्लेख सर्वप्रथम के स्वभाव धर्म से विपरीत सिद्ध होगा। 'ऋग्वेद' में मिलता है, जहाँ विराट पुरुष के मुख से ब्राह्मण, इससे स्पष्ट है किगीताकेकेन्द्र में कर्ममार्गही है। नैतिक बाहु से क्षत्रिय,उदर से वैश्य,पैर से शूद्र को उत्पन्न बताया गया दृष्टि से देखें तो गीता का मूल विषय है कर्मफल त्याग,निष्काम है। ठीक इसी तरह से महाभारत के 'शान्तिपर्व में भी इसका कर्म तथा उसका यथार्थआदर्श है-लोकसंग्रह अथवा जागतिक उल्लेख मिलता है। किन्तु गीता में आकर वर्ण-व्यवस्था में ___एकता। भगवान् कृष्ण ने कहा है कि कर्म करने का कोई प्रयोजन गुण-कर्म की प्रधानता हो गई है। अर्थात् ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य नरह गया हो अर्थात् जीवन्मुक्त हो गया हो,जिसे संसार के प्राणियों और शुद्र का निर्माण गुण और कर्म-भेद के आधार पर निर्धारित से कोई मतलब न रह गया हो उसे भी लोकहित में कर्म करते किया गया है- 'चातुर्वर्यं मया सृष्टं गुणकर्म विभागशः।२० रहना चाहिए। अर्जुन से कहते हैं- हे अर्जुन! लोकसंग्रह के
गीता में वर्गों का जो विभाजन है उसके आधार में लिए तझे कर्म करना उचित है।२४ 'स्वधर्म केन्द्रित है। 'स्वधर्म' स्वभाव कर्म है। कहीं-कहीं तो जैन परम्परा कर्मप्रधान है अत: यह स्वाभाविक है इसे 'सहज कर्म' और 'नियत कर्म भी कहा गया है। मनुष्य कि यहाँ वर्ण-व्यवस्था कर्माधारित ही होगी। अभिधानराजेन्द्र अपने-अपने स्वाभाविक कर्म में लगा हुआ नैतिक एवं कोश में कहा गया है कि शारीरिक विभिन्नता के आधार पर आध्यात्मिक लक्ष्य को प्राप्त कर सकता है। लेकिन जब तक किया जाने वाला वर्गीकरण मात्र स्थावर, पशु-पक्षी आदि के हम गीता की इस वर्ण-व्यवस्था को जाति-व्यवस्था से जोड़कर सन्दर्भ में लागू होता है किन्तु मनुष्यों के सम्बन्ध में नहीं।२५ विचार करते रहेंगे तब तक सामाजिक न्याय संभव नहीं है। उत्तराध्ययनसूत्र में भी कहा गया है कि कर्म से व्यक्ति ब्राह्मण जब हम गीता में विवेचित लोक संग्रहात्मक दृष्टि पर विचार होता है, कर्म से ही क्षत्रिय, कर्म से ही वैश्य और कर्म से ही करते हैं, तो पाते हैं कि वहाँ नैतिकता के सामाजिक और शूद्र होता है।६ डॉ० सागरमल जैन का मानना है कि जैन वैयक्तिक दोनों पक्षों की विवेचना हुई है, अर्थात् इसके नैतिक विचारणा यह तो स्वीकार करती है कि लोक-व्यवहार या दर्शन से व्यक्ति को जहाँ एक ओर पूर्णता, स्वतंत्रता, आप्तकामता आजीविका हेतु किये गये कर्म (व्यवसाय) के आधार पर की प्राप्ति होती है, वहीं दूसरी ओर समाज की सुरक्षा, सामाजिक समाज का वर्गीकरण किया जा सकता है, लेकिन इस व्यावसायिक पूर्णता एवं लोक कल्याण भी होता है। स्थितप्रज्ञ, गुणातीत या या सामाजिक व्यवस्था के क्षेत्र में किये जाने वाले विभिन्न भक्त की अवस्था को व्यक्ति निष्काम की स्थिति से प्राप्त कर्मों के वर्गीकरण के आधार पर किसी वर्ग की श्रेष्ठता या करता है और लोकसंग्रह के द्वारा वह सामाजिक नैतिकता की हीनता का प्रतिपादन नहीं किया जा सकता। किसी व्यक्ति की पूर्णता प्राप्त करता है। इसमें यह तथ्य निहित है कि निष्काम श्रेष्ठता या हीनता का आधार व्यावसायिक कर्म नहीं है, वरन् भाव को प्राप्त किये बिना लोकसंग्रह का कार्य नहीं किया जा व्यक्ति की नैतिक योग्यता या सद्गुणों का विकास है।२७