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श्रमण, वर्ष ६०, अंक १ जनवरी-मार्च २००९
सामाजिक नैतिकता के सन्दर्भ में कर्म-सिद्धान्त का स्वरूप (गीता एवं जैन दर्शन की दृष्टि में)
डॉ० श्याम किशोर सिंह*
___गीता और जैन साहित्य में निहित उपदेशों का गीता जो वैदिक परम्परा का प्रतिनिधित्व करती है, में सार्वभौमिक महत्त्व है। कर्म-सिद्धान्त की सार्वभौमिकता की कर्म की विस्तृत विवेचना हुई है। गीता की लोकप्रियता के कई चर्चा डॉ० राधाकृष्णन् एवं श्री अरविन्द आदि दार्शनिकों ने भी कारण हैं, लेकिन सबसे प्रमुख कारण है मानव जीवन से की है। आचार दर्शन, कर्म-सिद्धान्त के आधार पर ही समाज सम्बन्धित जटिल से जटिल समस्याओं का विवेचन और में नैतिकता के प्रति निष्ठा जागृत कर सकता है। डॉ० सागरमल शाश्वत समाधान का प्रस्तुतीकरण। गीता हिन्दू धर्म का ही जैन ने कहा है कि सामान्य मनुष्य को नैतिकता के प्रति नहीं,मानव धर्म का ग्रन्थ है। मानव धर्म,मानव आचरण पर आस्थावान बनाये रखने के लिए यह आवश्यक है कि कर्मों नियंत्रण रखता है, उसका नियमन और परिचालन करता है, की शुभाशुभ प्रकृति के अनुसार शुभाशुभ फल प्राप्त होने की अतः गीता का प्रयोजन भी मानव आचरण से सम्बन्धित धारणा में उसका विश्वास बना रहे। कोई भी आचार दर्शन इस समस्याओं का निराकरण और न्यायपूर्ण जीवन को प्रेरणा देना सिद्धान्त की स्थापना किये बिना जनसाधरण को नैतिकता के है। प्रत्यक्ष रूप से यह एक नैतिक ग्रंथ है।' प्रति आस्थावान बनाये रखने में सफल नहीं होता। कर्म- जितने भी साहित्य हैं चाहे वे वैदिक साहित्य होंया जैनसिद्धान्त के अनुसार अतीत, वर्तमान और भविष्य तीनों एक- बौद्ध, सभी के केन्द्र में जीवन-मूल्य, आदर्श और परम लक्ष्य दूसरे से जुड़े हैं। यदि हम भविष्य जीवन को सुखी बनाना को विवेचित किया गया है। गीता आचरण की जिनसमस्याओं चाहते हैं तो इसके लिए वर्तमान जीवन में ही प्रयत्नशील रहना के निदान द्वारा सामाजिक समस्याओं का हल खोजती है, उन्हीं आवश्यक है। अतीत के फलस्वरूप ही वर्तमान जीवन है। समस्याओं के समाधान जैन साहित्य में भी मिलते हैं। वे भी दूसरे शब्दों में कहें तो वैज्ञानिक जगत् में तथ्यों को विवेचित कर्तव्य-अकर्तव्य,पाप-पुण्य,नैतिक-अनैतिक अर्थात् जीवन करने के लिए जो स्थान 'कार्यकारण' सिद्धान्त का है, नैतिकता की विकट परिस्थितियों में क्या करें और क्या न करें की के क्षेत्र में वही स्थान 'कर्म-सिद्धान्त' का है। जिस प्रकार किंकर्तव्यविमूढ़ स्थिति में सद्मार्ग की ओर चलने को प्रेरित करते कार्यकारण-सिद्धान्त के परित्याग करने पर वैज्ञानिक गवेषणाएँ हैं। गीता ने व्यक्ति और समाज का पूर्ण समन्वय करके नैतिक निरर्थक हैं, उसी प्रकार कर्म-सिद्धान्त से विहीन आचार दर्शन जीवन के लिए अपना अकाट्य स्थान निर्धारित किया है तो जैन भी अर्थशून्य होता है। विचारणीय तथ्य यह है कि कर्म- मनीषियों ने भी आचार दर्शन के सच्चे सिद्धान्तों द्वारा समाजिक सिद्धान्त और कार्यकारण-सिद्धान्त में साम्य होते हुए भी समन्वय का प्रयास किया है। गीता के केन्द्र में कर्ममार्ग है, तो विषयों की प्रकृति के कारण दोनों में कुछ अन्तर है। भौतिक जैन साहित्य का भी लक्ष्य व्यक्ति को कर्मपथ के द्वारा मोक्ष को जगत् में कार्यकारण-सिद्धान्त का विषय जड़ पदार्थ है, जबकि प्राप्त कराना है। गीता जहाँ लोक-संग्रह की भावना को ध्यान कर्म सिद्धान्त का विषय चेतन है। अत: उसमें जितनी नियतता में रखकर गहन एवं सुबोधचिंतन द्वारा समस्त एकांगी प्रवृत्तियों होती है वैसी नियतता प्राणी जगत् में लागू होने वाले कर्म- का उच्छेद कर एक समग्रपरक कर्मकी अवधारणा का प्रतिपादन सिद्धान्त में नहीं हो सकती। यही कारण है कि कर्म-सिद्धान्त करती है, वहीं जैन मान्यता परस्पर सापेक्ष रूप से कार्य करने में नियतता और स्वतंत्रता का समुचित संयोग होता है।२ की व्याख्या करने में विश्वास करती है। दूसरी भाषा में कहें तो * व्याख्याता, दर्शन विभाग, अवधबिहारी सिंह महाविद्यालय, लालगंज, (वैशाली)