________________
श्रमण, वर्ष ६०, अंक १/जनवरी-मार्च २००९
बातें बताई गई हैं जो केवल शारीरिक विधि-व्यवस्था से इससे परिस्थितियों को सहन करने और कठिनाईयों को झेलने सम्बन्धित नहीं हैं, उनका सम्बन्ध भावना से है। वे भावात्मक की क्षमता बढ़ती है। प्रत्येक व्यक्ति में अनन्त शक्ति है, अनन्त प्रक्रियाएँ हैं, जिनके द्वारा उन केन्द्रों में परिवर्तन लाया जा आनन्द और अनन्त चेतना है। यदि इनका विकास किया जाए सकता है। रसायनों के द्वारा परिवर्तन करना, विद्युत प्रवाह या तो समस्याएँ आने पर भी व्यक्ति परेशान नहीं होगा, उसका इलेक्ट्रोड के द्वारा परिवर्तन करना- एक प्रक्रिया है किन्तु वह सहनशीलता से सामना करेगा। इसके लिए आवश्यक हैस्थाई नहीं है। जब तक इलेक्ट्रोड लगा रहता है, तब तक आन्तरिक परिवर्तन। उसका प्रभाव बना रहता है और उसके हटाने पर प्रभाव गायब ध्यान का प्रयोग जीवन के सर्वांगीण विकास का हो जाता है। रसायन का इंजेक्शन लगाते ही क्रोध उपशांत हो प्रयोग है। यह जीवन के आचरण और व्यवहार को प्रभावित जाता है किन्तु वह स्थायी रूप से समाप्त नहीं होता। कुछ करता है। अखण्ड व्यक्तित्व के लिए आवश्यक है बाहर और समय पश्चात् स्थिति पूर्ववत हो जाती है।
भीतर दोनों को देखें। केवल बाहर या केवल भीतर देखने से हमारा मस्तिष्क रासायनिक प्रभाव और विद्युतीय प्रभाव समस्या से मुक्ति नहीं मिल सकती। अत: बाह्य एवं आन्तरिक के बीच काम करता है। प्रश्न होता है कि जब इन सब उपायों व्यक्तित्व का समन्वय आवश्यक है। ध्यान इस समन्वय को से परिवर्तन घटित किया जा सकता है तो फिर ध्यान का स्थापित करने की पद्धत्ति है। श्वासप्रेक्षा का प्रयोग संतुलन का प्रयोग क्यों किया जाए? इन्जेक्शन तथा इलेक्ट्रोड का प्रयोग प्रयोग है, क्योंकि वह भीतर भी आता है और बाहर भी जाता सीधा है। इनका प्रयोग किया कि क्रोध, कामवासनाएँ, उत्तेजनाएँ है। इस क्रिया में वह ऑक्सीजन को भीतर ले जाता है तथा आदि शांत हो गयीं। फिर ध्यान का लम्बा अभ्यास क्यों किया कार्बन-डाईऑक्साइड को बाहर ले आता है। यदि यह क्रिया जाए। समाधान स्वरूप कहा जा सकता है कि ये सारे उपाय न हो तो प्राणशक्ति प्राप्त नहीं हो सकती। ध्यान का प्रयोग अस्थायी प्रभाव पैदा करने वाले होते हैं, इनसे स्थायी हल जागरूकता का प्रयोग है। श्वास के प्रति जागरूक होने का अर्थ नहीं होता। स्थायी समाधान के लिए एकमात्र उपाय ध्यान ही है- जीवन की समग्र जागरूकता का विकास। जो व्यक्ति श्वास है। अध्यात्म का मार्ग विरोधाभासों से मुक्त, निर्द्वन्द्व और स्पष्ट के प्रति जागरूक बनता है वह नाड़ी संस्थान पर नियंत्रण मार्ग है, उसमें कोई विसंगति नहीं है। वह केवल शोधन और करने में समर्थ हो जाता है। स्थूल व्यक्तित्व और सूक्ष्म रेचन की प्रक्रिया है। स्वाध्याय के द्वारा भी भावों को बदला व्यक्तित्व, स्थूल शरीर और सूक्ष्म शरीर के बीच एक ग्रन्थि जा सकता है। अच्छा विचार और अच्छा चिंतन करने से, (पीनियल ग्लैण्ड) सेतु का कार्य करती है। श्वास की जागरूकता अच्छे साहित्य का अध्ययन व मनन करने से भाव बदल जाते से वह प्रभावित होती है और उसमें परिवर्तन आता है, अर्थात् हैं, वृत्तियां बदल जाती हैं। यदि विधि सहित स्वाध्याय किया व्यक्तित्व में रूपान्तरण होता है। जब पीनियल ग्लैण्ड इनऐक्टिव जाए तो प्रभाव अवश्य पड़ता है। पढ़ना मात्र ही स्वाध्याय होता है तो आवेग बढ़ते हैं, स्वभाव असंतुलित हो जाता है। नहीं है। उसके साथ चिन्तन-मनन भी जुड़ना चाहिए, तभी अत: आन्तरिक व्यक्तित्व को विकसित करने के लिए नकारात्मक वह लाभदायक होता है। पढने के बाद मनन के द्वारा जो प्राप्त भावों के स्थान पर विधेयात्मक भावों का विकास करना होगा होता है वह निश्चित ही हमारे भाव परिवर्तन के लिए प्रभावी जिसके लिए आवश्यक है जागरूकता के प्रयोगों का जीवन में है। जब वृत्तियाँ परिष्कृत होती हैं तब जीवन की धारा भी सतत् अभ्यास। बदल जाती है।
प्रेक्षाध्यान का प्रयोग जागरूक होने का प्रयोग है।' किसी भी समस्या का स्थायी समाधान है- बाहरी रोटी खाना, पानी पीना, साँस लेना, व्यक्तित्व का अस्तित्व एवं आन्तरिक व्यक्तित्व का संतुलन। आज इसको विस्मृत नहीं है, परन्तु इसे नकारा नहीं जा सकता, क्योंकि जीवन यात्रा कर दिया गया है। दोनों व्यक्तित्वों का विकास होने पर ही पदार्थ के बिना चल नहीं सकती। प्रेक्षा से यह बोध प्राप्त होता समस्या का समाधान होता है। बाहरी व्यक्तित्व के विकास के है कि हम अपने अस्तित्व के प्रति जग जाएं। इसके लिए साथ-साथ आन्तरिक व्यक्तित्व का भी विकास होना चाहिए। आवश्यक है जागरूकता का विकास। जो व्यक्ति अपने अस्तित्व