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________________ ६ श्रमण, वर्ष ६०, अंक १ / जनवरी-मार्च २००९ मन सहज ही चञ्चल है। विषयों का आलम्बन पाकर मन की चञ्चलता बढ़ती जाती है। ध्यान का कार्य उस चंचल एवं भ्रमणशील मन को शेष विषयों से हटा, किसी एक विषय पर स्थिर कर देना है। ज्यों-ज्यों स्थिरता बढ़ती है, मन शान्त और निष्प्रकम्प होता जाता है। शुक्ल - ध्यान के अन्तिम चरण में मन की प्रवृत्ति का पूर्ण निरोध- पूर्ण संवर हो जाता है अर्थात् समाधि अवस्था प्राप्त हो जाती है। आचार्य उमास्वाति ने शुक्ल- ध्यान के चार भेद" बतलाये हैं १. पृथक्त्ववितर्कसविचार, २. एकत्ववितर्कनिर्विचार, ३. सूक्ष्मक्रियाप्रतिपाति, ४. व्युपरतक्रियानिवृत्ति । आचार्य हेमचन्द्र ने शुक्ल-ध्यान के स्वामी, शुक्लध्यान का क्रम, फल, शुक्ल - ध्यान" द्वारा घाति - अघाति कर्मों का अपच आदि अनेक विषयों का विश्लेषण किया है, जो मननीय है। जैन परम्परा के अनुसार वितर्क का अर्थ श्रुतावलम्बी विकल्प है। पूर्वधर - विशिष्ट ज्ञानी मुनि पूर्व श्रुत - विशिष्ट ज्ञान अनुसार किसी एक द्रव्य का आलम्बन लेकर ध्यान करता है । किन्तु उसके किसी एक परिणाम या पर्याय ( क्षण-क्षणवर्ती अवस्था विशेष) पर स्थिर नहीं रहता। वह उसके विविध परिणामों पर संचरण करता है - शब्द से अर्थ पर, अर्थ से शब्द पर तथा मन, वाणी एवं देह में एक-दूसरे की प्रकृति पर संक्रमण होते रहने पर भी ध्येय द्रव्य एक ही होता है, अतः उस अंश में मन की स्थिरता बनी रहती है। इस अपेक्षा से इसे ध्यान कहने में आपत्ति नहीं है। महर्षि पतञ्जलि ने योगसूत्र में सवितर्क - समापत्ति" (समाधि) का जो वर्णन किया है, वह पृथक्त्ववितर्कसविचार शुक्ल- ध्यान से तुलनीय है। वहाँ शब्द, अर्थ और ज्ञान इन तीनों के विकल्पों से संकीर्ण-मिलित समापत्ति-समाधि को सवितर्क - समापत्ति कहा है। इन (पातञ्जल और जैन योग से सम्बद्ध) दोनों की गहराई में जाने से अनेक दार्शनिक तथ्य स्पष्ट होंगे। पूर्वधर विशिष्ट ज्ञानी पूर्वश्रुत विशिष्ट ज्ञान के किसी एक परिणाम पर चित्त को स्थिर करता है । वह शब्द, अर्थ, मन, वाक् तथा देह पर संक्रमण नहीं करता। वैसा ध्यान एकत्व विचार - अवितर्क कहलाता है। पहले में पृथक्त्व है अतः वह सविचार है, दूसरे में एकत्व है अतः वह अविचार है। दूसरे शब्दों में कहा जा सकता है कि पहले में वैचारिक संक्रम है, दूसरे में असंक्रम। आचार्य हेमचन्द्र ने योगशास्त्र" में इन्हें पृथक्त्व - श्रुत- सविचार तथा एकत्व - श्रुत-अविचार के नाम से अभिहित किया है। महर्षि पतञ्जलि द्वारा वर्णित निर्वितर्क-समापत्ति एकत्वविचार-अवितर्क से तुलनीय है । पतञ्जलि लिखते हैं कि जब स्मृति परिशुद्ध हो जाती है अर्थात् शब्द और प्रतीति की स्मृति लुप्त हो जाती है, चित्तवृत्ति केवल अर्थमात्र का। ध्येय मात्र का निर्भास कराने वाली ध्येय मात्र के स्वरूप को प्रत्यक्ष कराने वाली हो, स्वयं स्वरूप- शून्य की तरह बन जाती है, तब वैसी स्थिति निर्वितर्क समापत्ति के नाम से अभिहित होती है। २० यह विवेचन स्थूल ध्येय पदार्थों की दृष्टि से है। जहाँ ध्येय पदार्थ सूक्ष्म हों, वहाँ उक्त दोनों की संज्ञा सविचार और निर्विचार समाधि है, ऐसा पतञ्जलि कहते हैं। निर्विचार - समाधि में अत्यन्त वैशद्य-नैर्मल्य रहता है, अतः योगी को उसमें अध्यात्म- प्रसाद - आत्म-उल्लास प्राप्त होता है। उस समय योगी की प्रज्ञा ऋतम्भरा होती है । ऋतम् का अर्थ सत्य है । वह प्रज्ञा या बुद्धि सत्य को ग्रहण करने वाली होती है। उसमें संशय और अशुभ का लेश मात्र भी अंश नहीं रहता। उस ऋतम्भरा प्रज्ञा से उत्पन्न संस्कारों के प्रभाव से अन्य संस्कारों का अभाव हो जाता है । अन्ततः ऋतम्भरा प्रज्ञा से जनित संस्कारों में भी आसक्ति न रहने के कारण उनका भी निरोध हो जाता है। इस प्रकार समस्त संस्कार निरुद्ध हो जाते हैं । फलतः संसार के बीज का सर्वथा अभाव हो जाने से निर्बीज-समाधि-दशा प्राप्त होती है। इस सम्बन्ध में जैन दृष्टिकोण कुछ भिन्न है। जैसाकि पहले उल्लेख हुआ है, जैन दर्शन के अनुसार आत्मा पर जो कर्मावरण छाये हुए हैं, उन्हीं ने उसका शुद्ध स्वरूप आवृत कर रखा है। ज्यों-ज्यों उन आवरणों का विलय होता जायेगा, आत्मा की वैभाविक दशा छूटती जायेगी और वह (आत्मा) स्वाभाविक दशा प्राप्त करती जायेगी। आवरणों के अपचय के नाश के जैन दर्शन में तीन क्रम हैं- क्षय, उपशम और क्षयोपशम । किसी कार्मिक आवरण का सर्वथा निर्मल या नष्ट हो जाना क्षय, अवधि-विशेष के लिए मिट जाना या शान्त हो ना उपशम तथा कर्म की कतिपय प्रकृतियों का सर्वथा क्षीण हो जाना और कतिपय प्रकृतियों का समय विशेष के लिए शान्त हो जाना क्षयोपशम कहलाता है। कर्मों के उपशम से जो समाधि-अवस्था प्राप्त होती है, वह सबीज है, क्योंकि वहाँ कर्म-बीज का सर्वथा उच्छेद नहीं हुआ है, केवल उपशम
SR No.525067
Book TitleSramana 2009 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreeprakash Pandey, Vijay Kumar
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year2009
Total Pages100
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size14 MB
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