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________________ ४४ : श्रमण, वर्ष ५९, अंक ४/अक्टूबर-दिसम्बर २००८ होता है और दूसरे के पास कम। जैन परम्परा की यह भी मान्यता है कि दूसरों को अभाव में रखना भी हिंसा है, अत: हिंसायुक्त अर्थतन्त्र संपोष्य विकास के लिए घातक है। इसलिए संपोष्य विकास की दृष्टि से अपरिग्रहवृत्ति अहिंसामूलक अर्थतन्त्र का आधार है। इसी से शान्ति, सुख और संतोष की प्राप्ति संभव है। यह विश्वशांति का मार्ग भी प्रशस्त करता है। जैन चिन्तन परम्परा में संपोष्य विकास की दृष्टि से आर्थिक आयाम के लिए 'लेश्या' की धारणा प्रासंगिक मानी जा सकती है। 'लेश्या' का सामान्य अर्थ है विचार अथवा मनोवृत्ति। अर्थात् लेश्या एक ऐसी शुभाशुभ मनोवृत्ति है जो मानवीय जीवन के समस्त पक्ष को प्रभावित करती है। इस दृष्टि से जैन धर्म में छः लेश्याओं - कृष्ण, नील, कपोत, पीत, पद्म एवं शुक्ल आदि की व्याख्या मिलती है। इसमें तीन लेश्याएँ यथा - कृष्ण, नील, कपोत, स्वार्थी, अविवेकपूर्ण, भोगपरक एवं तामसी प्रवृत्ति की होती है और अन्य तीन लेश्याएँ यथा - पीत, पद्म और शुक्ल - मानववादी, दयालु, आत्मनिग्रही, जितेन्द्रिय, मिष्टभाषी, सत्गुणी, समदर्शी और शान्त अन्तःकरण वाली होती हैं। संपोष्य विकास की दृष्टि से उत्तराध्ययनसूत्र में अन्तिम तीन लेश्याओं को जीवन में ग्रहण करने पर बल दिया गया है।२२ इन लेश्याओं के माध्यम से व्यक्ति त्यागमय आर्थिक-व्यवस्था की कल्पना करता है जो व्यक्तिपरक, समाजपरक और प्रकृतिपरक होता है। इन लेश्याओं से युक्त व्यक्ति गीता के स्थितप्रज्ञ के समान होता है, जो कभी असंपोष्यता का विचार पैदा नहीं कर सकता। __इस तरह जैन परम्परा का संपोष्य विकास की दृष्टि से अध्ययन करने पर यह स्पष्ट होता है कि जैन परम्परा आचार से अहिंसा, चिन्तन में अनेकांत, वाणी में स्यात् और समाज में अपरिग्रह के निश्कलुष प्रवर्तन का घोष करती है। सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक आयामों के अतिरिक्त प्राकृतिक आयामों की जैन परम्परा में विशद् विवेचना से समस्त असंपोषी वातावरण को संपोषी बनाया जा सकता है। सन्दर्भ 1. W.C.E.D. (Worl Convention on Enviornment Develop ment), 1987 2. K.P. Geeth Krishnan 'Sustainable Development in opration in Malcolm S. Adisesrhio (ed) Sustainable Development : Its contains, Scope, and Prices - Lass Car International, New Delhi-1990. Page-7 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525066
Book TitleSramana 2008 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreeprakash Pandey, Vijay Kumar
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year2008
Total Pages202
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size9 MB
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