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________________ : श्रमण, वर्ष ५९, अंक ४/ अक्टूबर-दिसम्बर २००८ विकास के लिए सर्वप्रथम प्रत्येक व्यक्ति को हिंसायुक्त जीवन त्यागकर प्राणीमात्र के संरक्षण की बात पर बल दिया गया है। योगशास्त्र में कहा गया है कि प्रमाद के वशीभूत होकर त्रस (द्विन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय व पंचेन्द्रिय) अथवा स्थावर (पृथ्वी, पानी, अग्नि, वायु और वनस्पतिकाय) प्राणियों का हनन न करना अहिंसा व्रत है। आशय यह है कि संसार में जितने भी प्राणी हैं मनसा, वाचा, कर्मणा से उनकी हिंसा न करना ही अहिंसा है। जैन धर्म में पृथ्वी पानी, अग्नि तथा वायु में भी जीवन माना गया है, अतः इनके प्रति सकारात्मक भाव भी अहिंसा है। यहाँ यह भी स्पष्ट होता है कि पृथ्वी, पानी, अग्नि, वायु व वनस्पति आदि मिलकर एक जैविक पर्यावरण का निर्माण करते हैं जिसमें जीव अपनी समस्त अनुक्रियाएँ सम्पन्न करता है। इस संतुलित पर्यावरण में किसी तरह की विकृति पैदा करना हिंसा है। अतः संपोष्य विकास की परिभाषा में सुव्यवस्थित पर्यावरण का निर्माण अहिंसा के माध्यम से ही किया जा सकता है। इससे ही प्रकृति व पुरुष में तादात्म्य स्थापित किया जा सकता है और प्रकृति व परिवेश का संरक्षण हो सकता है, जिससे विकास को सुस्थिर, संपोष्य व टिकाऊ बनाया जा सकता है। ४० सामाजिक-सांस्कृतिक आयाम जैन परम्परा में संपोष्य विकास के सामाजिक-सांस्कृतिक आयाम को उत्तराध्ययनसूत्र, कल्पसूत्र, आवश्यकचूर्णि आदि ग्रंथों में स्पष्ट करने का प्रयास किया गया है। जैन परम्परा की दृष्टि से सामाजिक-सांस्कृतिक आयाम में वर्ण-व्यवस्था, पारिवारिक जीवन, व्यक्ति के कर्तव्य, स्त्री महत्ता, समानता इत्यादि पर बल दिया गया है जो संपोष्य विकास की दृष्टि से सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण माना जा सकता है। वर्ण-व्यवस्था भारतीय समाज का मेरुदण्ड है। भारतीय समाज में वर्ण अथवा जाति-व्यवस्था के पीछे एक गूढ़ रहस्य छिपा हुआ है, वह है - समरसता, पारस्परिक सौहार्द और वसुधैवकुटुम्बकम् का भाव । भारतीय समाज में जाति अथवा वर्ण-व्यवस्था को इसलिए नहीं स्वीकार किया गया है कि समाज को असंपोषीअस्थिर और छिन्न-भिन्न करना है; बल्कि वर्ण-व्यवस्था के माध्यम से समाज में एक रूपता और पारस्परिक सहयोग की भावना को बढ़ाकर व्यक्ति को समाजपुरुष बनाना है। । इस दृष्टि से जैन परम्परा में चारों वर्णों की स्थापना का आधार कर्म माना गया है। १३ इसके अनुसार इन चारों वर्णों की स्थापना का मुख्य आधार सामाजिक उच्चता तथा नीचता और जातिवाद नहीं है, बल्कि मानवता की उस पराकाष्ठा को प्राप्त कर लेना है Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525066
Book TitleSramana 2008 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreeprakash Pandey, Vijay Kumar
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year2008
Total Pages202
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size9 MB
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