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देहात्मवाद : १५
लेप करा दिया तथा उसकी देख-रेख के लिए अपने विश्वासपात्र पुरुषों को रख दिया। कुछ दिन पश्चात् मैंने जब उस कुम्भी को खुलवाया तो वह मनुष्य मर चुका था किन्तु उस कुम्भी में कोई भी छिद्र या दरार नहीं थी जिससे उसमें बन्द पुरुष का जीव बाहर निकला हो ।
इसी प्रकार मैंने एक पुरुष को प्राण रहित करके एक लौह कुम्भी में डाल दिया तथा ढक्कन से उसे बन्द करके उस पर रांगे का लेप करवा दिया कुछ समय पश्चात् जब उस कुम्भी को खोला गया तो उसका शरीर कृमिकुल से व्याप्त हो गया था, किन्तु उसमें कोई दरार या छिद्र नहीं था जिससे उसमें जीव प्रवेश करता। अतः जीव और शरीर भिन्न-भिन्न नहीं है।
राजा पएसी की इस शंका का समाधान करते हुए केशिकुमार ने कहा
हे राजन! जिस प्रकार एक ऐसी कुटागारशाला जो अच्छी तरह से आच्छादित हो, उसका द्वार गुप्त हो यहाँ तक कि उसमें कुछ भी प्रवेश नहीं कर सके वैसी कुटागारशाला में कोई व्यक्ति यदि जोर से भेरी बजाये तो तुम बताओ कि वह आवाज बाहर सुनायी देगी कि नहीं? निश्चय ही वह आवाज सुनायी देगी। अतः जिस प्रकार शब्द अप्रतिहत गतिवाला है उसी प्रकार आत्मा भी अप्रतिहत गतिवाली है अत: तुम यहाँ श्रद्धा करो कि जीव और शरीर भिन्न-भिन्न हैं । १७
इसी तरह जिस प्रकार लोहे के गोले में छेद नहीं होने पर भी अग्नि उसमें प्रवेश कर जाती है, उसी प्रकार जीव भी अप्रतिहत गति वाला होने से कहीं भी प्रवेश कर जाता है।
राजा ने फिर एक अन्य तर्क प्रस्तुत किया और कहा कि मैंने एक चोर के शरीर विभिन्न अंगों को काटकर, चीरकर देखा लेकिन मुझे कहीं भी जीव नहीं दिखाई दिया । अतः शरीर से पृथक् जीव की सत्ता सिद्ध नहीं होती । इसके प्रत्युत्तर में
शीकुमार ने कहा कि 'हे राजन् ! जैसे जलती हुई लकड़ी के बुझ जाने पर लकड़ी को चीर कर आग पाने की इच्छा रखने वाला मनुष्य मूर्ख है, वैसे ही शरीर को चीर कर जीव देखने की इच्छा वाले तुम भी कुछ कम मूर्ख नहीं हो। जिस प्रकार अरणि के माध्यम से अग्नि अभिव्यक्त होती है उसी प्रकार आत्मा भी शरीर के माध्यम से अभिव्यक्त होती है, किन्तु शरीर को चीरकर उसे देखने की प्रक्रिया उसी प्रकार मूर्खतापूर्ण है जैसे अरणि को चीर-फाड़कर अग्नि को देखने की प्रक्रिया। अतः हे राजन् ! यह श्रद्धा करो कि आत्मा अन्य है और शरीर अन्य है । "
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