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संस्कृत छाया :
नश्यतोरपि आवयो न नाथ! शरणं तु विद्यते किञ्चित् ।
तावत् तव वैरिणीरूपा जाता परमार्थतोऽहम् ।।४९।। गुजराती अर्थ :- अहीं थी भागी जता आपणु कोई पण शरण नथी तेथी परमार्थथी तो हुं आपनी वेरी थई छु। हिन्दी अनुवाद :- यहाँ से भागने पर अपना कोई भी शरण नहीं है, अत: परमार्थ से तो मैं आपकी वैरी (शत्रु) हो गयी हूँ। गाहा :
तुह-विरह-तावियाए न आसि मह सामि ! तारिसं दुक्खं।
जं तुह नाह ! विवत्तिं संभाविय इण्हि संजायं ।।५०।। संस्कृत छाया :
तव विरह-तप्ताया नासीद् मे स्वामिन् ! तादृग् दुःखम्।
यत् तव नाथ! विपत्तिं सम्भाव्येदानीं सञ्जताम् ।।५०।। गुजराती अर्थ :- हे स्वामिन्! आपना विरहथी पीडित ऐवी मने तेटलु दुःख न हतु जे अत्यारे आपनी पर आवेला संकट ने विचारी ने थयु। हिन्दी अनुवाद :- हे स्वामिन् ! आप के विरह से पीड़ित थी तब भी मुझे उतना दुःख नहीं था जो दुःख अभी आप पर आने वाले संकट को देखकर हो रहा है। गाहा :
लद्धोवि नाह! कहवि हु मज्झ अउन्नाए होसि न हु इण्डिं।
पुन्न-रहियाण अहवा पत्तंपि हु विहडए सहसा ।।५१।। संस्कृत छाया :लब्धोऽपिनाथ! कथमपि खलु ममापुन्याया भवसि न खल्विदानीम्। पुण्यरहितानामथवा प्राप्तमपि खलु विघटते सहसा ।।११।। गुजराती अर्थ :- हे नाथ! केमे करीने तुं मळयो पण हवे अभागणी एवी मारो नहिं थाय अथवा भाग्यहिनो ने प्राप्त थयेनु पण वास्तवमां नाश पामी जाय छ। हिन्दी अनुवाद :- हे नाथ! मुझ अभागिनी को किसी प्रकार आप मिल गये किन्तु वह मिलना नहीं के बराबर है, क्योंकि भाग्यहीन मनुष्यों को मिली चीज वास्तव में नष्ट हो जाती है।
गाहा :
भो सुप्पइट्ठ! एवं भणिउं अवलम्बिऊण मह कंठे। गुरु-दुक्ख-निब्मराए रुन्नं अह तीए बालाए ।।५२।।
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