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________________ श्रमण, वर्ष ५९, अंक ३ जुलाई-सितम्बर २००८ एक उदार दृष्टिकोण का पक्षधर हैजैन दर्शन का 'स्याद्वाद' डा० सुरेन्द्र वर्मा* जनमानस में यह एक सामान्य धारणा है कि जैन दर्शन के प्रवर्तक स्वामी महावीर थे। किन्तु जैन परम्परा महावीर को जैन शिक्षकों की एक लम्बी श्रृंखला, जिसमें चौबीस तीर्थंकरों का उल्लेख है, के अंतिम पायदान पर स्थित करती है। ऋषभदेव से पार्श्वनाथ तक तेईस तीर्थंकर माने गए हैं। महावीर का स्थान चौबीसवाँ है। इन तीर्थंकरों में हम अधिक से अधिक तेईसवें और चौबीसवें (क्रमशः पार्श्वनाथ और महावीर) को ही ऐतिहासिकता प्रदान कर सकते हैं। शेष सभी प्रागैतिहासिक हैं। पार्श्वनाथ, जो संभवत: ई० पू० आठवीं शताब्दी में जीवित रहे होंगे, की शिक्षाओं को महावीर ने एक नया जीवन दिया था और आज इसीलिए वे सामान्यत: जैन दर्शन के उद्घोषक माने जाते हैं। जैन दर्शन का एक बहुत सुन्दर और व्यावहारिक सिद्धांत 'स्याद्वाद' है। यदि कोई इस सिद्धांत को अपने जीवन में उतारता है तो समझना चाहिए कि वह अपनी आंतरिक स्वतंत्रता और उदारदृष्टि को अभिव्यक्ति दे रहा होता है। स्याद्वाद के अनुसार हम अपनी वार्ता में जो भी कथन करते हैं, वे सभी सापेक्ष होते हैं। निरुपाधि या निरपेक्ष कुछ भी नहीं है। हमारा हर कथन पात्र और परिस्थितियों, समय और संदर्भो से जुड़ा होता है। उसकी सत्यता केवल विशेष परिस्थिति और संदर्भ में देखी जा सकती है। इसीलिए जैन दर्शन के अनुसार हमें अपने हर कथन के आगे 'स्यात्' जोड देना चाहिए। 'स्यात्' संस्कृत धातु 'अस्' से व्युत्पन्न है जिसका अर्थ है- 'हो सकता है।' इसका आशय यह है कि विश्व को हम अनेक दृष्टिकोणों से देख सकते हैं और हर दृष्टि सोपाधिक है। दृष्टि से स्वतंत्र किसी भी वस्तु का मूल या यथार्थ स्वभाव क्या है, कैसा है- कोई नहीं बता सकता। हर दृष्टिकोण एक सीमित दृष्टिकोण है। हम सब ठीक उन अंधों की तरह हैं जो हाथी के किसी एक हिस्से को छूकर तदनुसार उसका वर्णन करते हैं। जो उसका कान पकड़ लेता है वह हाथी को सूप की तरह बताता है, जो उसके पैर पकड़ता है, वह उसे खम्भे की तरह बताता है। सच यह है कि हाथी को अपनी सम्पूर्णता में किसी ने भी नहीं देखा है। अधिक से अधिक वे सब इतना भर कह सकते हैं कि 'हाथी सूप की तरह' या 'खम्भे की तरह है' इत्यादि।' *१० एच आई जी, सर्कुलर रोड, इलाहाबाद-२११००१ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525065
Book TitleSramana 2008 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreeprakash Pandey, Vijay Kumar
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year2008
Total Pages242
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size10 MB
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