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________________ जैन इतिहास : अध्ययन विधि एवं मूलस्रोत : ९१ भी साधना-काल में उनका विचरण क्षेत्र क्या रहा तथा इस काल में उन्हें क्याक्या कष्ट उठाने पड़े और उन्होंने किस प्रकार की साधना की, इसका एक पूर्ण प्रामाणिक विवरण उपलब्ध हो जाता है। यह विवरण पूर्णत: श्रद्धातिरेक और अतिशयोक्ति से रहित है। आचारांगसूत्र के दूसरे श्रुतस्कन्ध के अन्तिम भावना नामक अध्ययन में भी महावीर का जीवनवृत्त मिलता है। इससे महावीर के दीक्षापूर्व और कैवल्य की प्राप्ति के पश्चात् के काल का विववण भी मिल जाता है। प्रथम श्रुतस्कन्ध की अपेक्षा यह विवरण अधिक व्यापक एवं विस्तृत है और उनके जीवन को समग्रता से प्रस्तुत करता है, फिर भी इसकी वस्तुनिष्ठता एवं प्रामाणिकता को लेकर विद्वान् पूर्ण आश्वस्त नहीं हो पाते हैं। इसमें उनके जीवनवृत्त के साथ अनेक अतिशय जुड़ गये हैं। आचारांगसूत्र के पश्चात् महावीर के जीवनवृत्त के सम्बन्ध में क्वचित् उल्लेख सूत्रकृतांगसूत्र के छठे अध्ययन में मिलता है, यद्यपि यह अध्ययन महावीर की स्तुतिरूप है, फिर भी इसमें कुछ तथ्यात्मक जानकारी है, जैसे महावीर ने पार्थापत्य परम्परा से भिन्न होकर स्त्री-सम्पर्क और रात्रिभोजन निषेध किया था (से वारिया इत्थी सरायभत्त) सूत्रकृतांगसूत्र में बाहुक, देवल, द्वैपायन, रामगुप्त, पराशर, उदक पेढालपुत्र आदि (१/३/४) के जो उल्लेख हैं वे औपनिषदिक और बौद्ध स्रोतों से भी पुष्ट होते हैं, अतः उनकी ऐतिहासिकता से इन्कार नहीं किया जा सकता है। इसी प्रकार समवायांगसूत्र (९/२९) में भगवान महावीर की परम्परा के नौ गणों का उल्लेख मिलता है। यद्यपि परवर्ती काल में इन गणों को ११ गणधरों की ९ वाचनाओं से जोड़कर व्याख्यायित किया गया है, किन्तु मूल ग्रंथ में गोदासगण से लेकर कोटिक आदि जिन गणों का उल्लेख है, वे अब बड्डमाणु एवं मथुरा के प्रथम द्वितीय शताब्दी के अभिलेखों एवं कल्पसूत्र की पट्टावली से संपुष्ट होकर एक ऐतिहासिक तथ्य की जानकारी देते हैं। ज्ञातव्य है कि इन गणों, कुलों और उनकी शाखाओं के उल्लेख न केवल मथुरा के अभिलेखों के स्रोतों से सम्पुष्ट होते हैं, अपितु कल्पसूत्र के अंत में उल्लेखित पट्ट परम्परा से भी सम्पुष्ट होते हैं। कल्पसूत्र के तीन विभाग हैं उनमें जिन-चरित्र और पट्टावली ऐतिहासिक दृष्टि से अत्यंत महत्त्वपूर्ण हैं। भगवान महावीर के जन्म, केवलज्ञान की उपलब्धि एवं निर्वाण स्थलों आदि की जानकारी हमें इसी ग्रंथ से उपलब्ध होती है। भगवतीसूत्र में गोशालक, जामाली, जयन्ती एवं पार्खापत्य परम्परा के श्रावकों तथा अनेक नगरों और उनमें राजाओं आदि के जो उल्लेख हैं, उनकी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525064
Book TitleSramana 2008 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreeprakash Pandey, Vijay Kumar
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year2008
Total Pages236
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size10 MB
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