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________________ राजप्रश्नीयसूत्र का समीक्षात्मक अध्ययन : ७७ प्रणाम किया। प्रणाम करके लोममयी प्रमार्जनी हाथ में ली, प्रमार्जनी से जिनप्रतिमा को प्रमार्जित किया। प्रमार्जित करके सुगन्धित जल से उन जिनप्रतिमाओं का प्रक्षालन किया। प्रक्षालन करके उन पर गोशीर्ष चंदन का लेप किया। गोशीर्ष चंदन का लेप करने के पश्चात् उन्हें सुवासित वस्त्रों से पोंछा, पोंछकर जिनप्रतिमाओं को अखण्ड देवदूष्य युगल पहनाया । देवदूष्य पहनाकर पुष्पमाला, गंधचूर्ण एवं आभूषण चढ़ाये। तदनन्तर नीचे लटकती लम्बी-लम्बी गोल मालाएँ पहनायीं । मालाएँ पहनाकर पंचवर्ण के पुष्पों की वर्षा की। फिर जिनप्रतिमाओं के समक्ष विभिन्न चित्रांकन किये एवं श्वेत तन्दुलों से अष्टमंगल का आलेखन किया। उसके पश्चात् जिनप्रतिमाओं के समक्ष धूपक्षेप किया। धूपक्षेप करने के पश्चात् विशुद्ध, अपूर्व, अर्थसम्पन्न महिमाशाली १०८ छन्दों से भगवान की स्तुति की। स्तुति करके सात-आठ पैर पीछे हठा। पीछे हटकर बाँया घुटना ऊँचा किया तथा दायाँ घुटना जमीन पर झुकाकर तीन बार मस्तक पृथ्वी तल पर नमाया। फिर मस्तक ऊँचा कर दोनों हाथ जोड़कर मस्तक पर अँजलि करके 'नमोत्थुणं अरहन्ताणं...ठाणं संपत्ताणं नामक शक्रस्तव का पाठ किया। इस प्रकार अर्हन्त और सिद्ध भगवान् की स्तुति करके फिर जिनमंदिर के मध्य भाग में आये । उसे प्रमार्जित कर दिव्य जलधारा से सिंचित किया और गोशीर्ष चंदन का लेप किया तथा पुष्पसमूहों की वर्षा की। तत्पश्चात् उसी प्रकार उन्होंने मयूरपिच्छ से द्वारशाखाओं, पुतलियों एवं व्यालों को प्रमार्जित किया तथा उनका प्रक्षालन कर उनको चंदन से अर्चित किया तथा धूपक्षेप करके पुष्प एवं आभूषण चढ़ाये। इसी प्रकार उन्होंने मणिपीठिकाओं एवं उनकी जिनप्रतिमाओं की, चैत्यवृक्ष की तथा महेन्द्र ध्वजा की पूजा-अर्चना की। इससे स्पष्ट है कि राजप्रश्नीय के काल में पूजा सम्बन्धी मन्त्रों के अतिरिक्त जिनपूजा की एक सुव्यवस्थित प्रक्रिया निर्मित हो चुकी थी। लगभग ऐसा ही विवरण वरांगचरित के २३वें सर्ग में भी है। यह स्पष्ट है कि जिनपूजा का यह विकसित स्वरूप गुप्तकालीन है और भक्तिमार्ग के विकास के साथ जैनधर्म में प्रविष्ट हुआ है। इस पर हिन्दूधर्म की पूजा-पद्धति का पूर्ण प्रभाव है जिसकी चर्चा मैंने अपनी पुस्तक 'जैनधर्म और तान्त्रिक साधना' में की है। हम यह भी बता चुके हैं कि राजप्रश्नीयसूत्र का यह भाग परवर्ती प्रक्षेप है। मूल भाग केवल राजा पएसी और केशीकुमार श्रमण की चर्चा तक ही सीमित था । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525064
Book TitleSramana 2008 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreeprakash Pandey, Vijay Kumar
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year2008
Total Pages236
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size10 MB
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