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________________ ६४ : श्रमण, वर्ष ५९, अंक २ / अप्रैल-जून २००८ बात भी माननी होगी कि नग्नत्व परीषह और स्त्री परीषह के सद्भाव में ही मुक्ति होगी, किन्तु तत्त्वार्थसूत्र में नग्नत्व और स्त्री परीषह दोनों ही चारित्रमोह के कारण माने गये हैं और चारित्रमोह दसवें गुणस्थान तक ही होता है, अतः यह मानना होगा कि ग्यारहवें से लेकर चौदहवें गुणस्थान में नाग्न्य और स्त्री पहिषह का अभाव होता है और इनके अभाव में ही आत्मा मुक्त होती है। अतः यदि साध्वी को नाग्न्य परीषह नहीं होता है, तो उससे उसकी मुक्ति में कोई बाधा नहीं आएगी, क्योंकि सिद्धान्त यह कहता है कि चारित्र मोहजन्य नाग्न्य परीषह के अभाव में ही मुक्ति होगी, सद्भाव में नहीं । अतः तत्त्वार्थसूत्र का नौवें अध्याय का पन्द्रहवाँ सूत्र' चारित्रमोहे नाग्न्यारतिस्त्रीनिषद्याक्रोशयाचनासत्कारपुस्काराः ' यह स्पष्ट कर देता है कि नाग्न्य परीषह का अभाव स्त्रीमुक्ति का विरोधी नहीं है। पुनः यदि वे दूसरा विकल्प सत्य मानते हैं कि परीषह के अभाव में ही मुक्ति होती है तो उनके अनुसार भी स्त्री में नाग्न्य परीषह का अभाव ही है, अतः वह मुक्त हो सकती है, फलतः तत्त्वार्थसूत्र किसी भी स्थिति में स्त्रीमुक्ति का विरोधी नहीं है, वस्तुतः परीषहों का सद्भाव या अभाव मुक्ति का हेतु ही नहीं है परीषहों के सद्भाव में भी मुक्ति संभव है और परीषहों के अभाव में भी मुक्ति संभव है। क्योंकि तत्त्वार्थसूत्र के सर्वार्थसिद्धि मान्य दिगम्बर पाठ में और तत्त्वार्थभाष्य मान्य श्वेताम्बर पाठ में 'एकादशे जिने' पाठ तो समान ही है। जिसका स्पष्ट अर्थ तो यही है कि जिन में बाईस में से वेदनीयजन्य ग्यारह परीषह होते हैं और ज्ञानावरण, दर्शनावरण, मोहनीय और अन्तरायजन्य ग्यारह परीषह नहीं होते हैं। वेदनीय आदि अघाती कर्मजन्य परीषहों का सद्भाव मुक्ति में बाधक नहीं है और मोहनीय आदि घाती कर्मजन्य परीषह का सद्भाव मुक्ति में बाधक है । तत्त्वार्थसूत्र में नाग्न्य और स्त्री परीषह का सम्बन्ध चारित्र मोह से है, वहाँ चारित्रमोह का सम्बन्ध वस्त्र की उपलब्धि या अनुपलब्धि से नहीं है, अपितु वस्त्र के प्रति आसक्ति से है, लज्जा के भाव से है, साथ ही स्त्री परीषह का मतलब स्त्री की उपस्थिति या अनुपस्थिति से नहीं है, अपितु कामवासना से है । यह सत्य है कि वस्त्रासक्ति एवं लोक-लज्जा का भाव वस्त्र की उपस्थिति में भी हो सकता है और उसके अभाव में भी हो सकता है। इसी प्रकार वस्त्रासक्ति या लज्जा भाव का त्याग भी वस्त्र की उपस्थिति और अनुपस्थिति दोनों में सम्भव है, जैसे आधुनिक काल में वस्त्र पहनने के जो तरीके हैं, वहाँ वस्त्र के होते हुए भी लज्जा का भाव नहीं होता है। अतः 'बादरसम्पराय सर्वे' सूत्र स्त्रीमुक्ति में बाधक नहीं है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525064
Book TitleSramana 2008 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreeprakash Pandey, Vijay Kumar
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year2008
Total Pages236
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size10 MB
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