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________________ आचारांगसूत्र की मनोवैज्ञानिक दृष्टि : ५७ की उपलब्धि को आचारांगसूत्र और आधुनिक मनोविज्ञान दोनों की दृष्टि से मानव जीवन का साध्य माना जा सकता है। अतः जो जीवन का साध्य एवं स्वभाव हो वही धर्म कहा जा सकता है। आचारांगसूत्र स्पष्ट रूप से कहता है कि जो समता को जानता है वही मुनि धर्म को जानता है। आचारांगसूत्र में अहिंसा का मनोवैज्ञानिक विश्लेषण आचारांगसूत्र में अहिंसा के सिद्धांत को मनोवैज्ञानिक आधार पर ही स्थापित करने का प्रयास किया गया है। अहिंसा को आर्हत् प्रवचन का सार और शुद्ध एवं शाश्वत धर्म बताया गया है। सर्वप्रथम हमें यह विचार करना है कि अहिंसा को ही धर्म क्यों माना जाये । सूत्रकार इसका बड़ा मनोवैज्ञानिक उत्तर प्रस्तुत करता है, वह कहता है कि सभी प्राणियों में जिजीविषा प्रधान है, पुनः सभी को सुख अनुकूल और दुःख प्रतिकूल है (सव्वे पाणा पिआउया सुहसाता दुक्खपडिकूला, १/२/३/७८) अहिंसा का अधिष्ठान यही मनोवैज्ञानिक सत्य है। अस्तित्व और सुख की चाह प्राणीय स्वभाव है। जैन विचारकों ने इसी मनोवैज्ञानिक तथ्य के आधार पर अहिंसा को स्थापित किया है। यद्यपि मैंकेञ्जी ने अहिंसा का आधार 'भय' को माना है, किन्तु उसकी यह धारणा गलत है, क्योंकि भय के सिद्धांत को यदि अहिंसा का आधार बनाया जायेगा तो व्यक्ति केवल सबल की हिंसा से विरत होगा निर्बल की हिंसा से नहीं । भय को आधार मानने पर तो जिससे भय होगा उसी के प्रति अहिंसक बुद्धि बनेगी। जबकि आचारांग तो प्राणियों के प्रति ही नहीं अपितु वनस्पति, जल और पृथ्वीकायिक जीवों के प्रति भी अहिंसक होने की बात करता है, अतः आचारांगसूत्र में अहिंसा को भय के आधार पर नहीं, अपितु जिजीविषा और सुखाकांक्षा के मनोवैज्ञानिक सत्यों के आधार पर अधिष्ठित किया गया है। पुनः अहिंसा के इन मनोवैज्ञानिक सत्यों के साथ तुल्यता बोध को बौद्धिक सिद्धांत पर खड़ा किया गया। वहाँ कहा गया है कि जे अज्झत्थं जाणति से बहिया जाणति । एयं तुल्लमण्णेसिं (१/१/७/५६) । जो अपनी पीड़ा का जान पाता है वही तुल्यता बोध के आधार पर दूसरों की पीड़ा को भी समझ सकता। यह प्राणीय पीड़ा का तुल्यता बोध के आधार पर होने वाला आत्मसंवेदन ही अहिंसा का आधार है । सूत्रकार तो अहिंसा के इस सिद्धांत को अधिक गहराई तक अधिष्ठित करने के प्रयास में यहाँ तक कह देता है कि जिसे तू मारना चाहता है, पीड़ा देना चाहता है, सताना चाहता है वह तू ही है ( आचारांगसूत्र १/५/५)। आगे वह यहाँ तक कह देता है कि जो लोक का अपलाप करता है वह स्वयं अपनी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525064
Book TitleSramana 2008 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreeprakash Pandey, Vijay Kumar
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year2008
Total Pages236
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size10 MB
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