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________________ ४८ : श्रमण, वर्ष ५९, अंक २ / अप्रैल-जून २००८ संसार की अशुभता, भवभ्रमण की अनन्त परम्परा और वस्तु की परिणमनशीलता का विचार किया गया है। यद्यपि ये अनुप्रेक्षाएँ शुक्लध्यान की प्रारम्भिक अवस्था में ही संभव हैं। फिर शुक्लध्यान में लेश्या की स्थिति की चर्चा करते हुए कहा गया है कि शुक्लध्यान के प्रथम दो चरणों में शुक्ललेश्या, तीसरे चरण में परम शुक्ललेश्या और चौथे चरण में लेश्या का अभाव होता है। लेश्या मनोवृत्ति रूप है। शुक्लध्यान के चतुर्थ चरण में मन 'अमन' हो जाता है, अत: वहाँ लेश्या नहीं होती है। तदनन्तर अवद्य (पूर्ण अहिंसा), असम्मोह, विवेक और व्युत्सर्गइन शुक्लध्यान के चार लक्षणों की चर्चा की गई है। शुक्लध्यान में आत्मा स्वरूपघात (स्वहिंसा) और अपघात दोनों से रहित होता है, उसकी मोहदशा का निवारण हो जाने पर उसमें असम्मोह और विवेक गुण प्रकट हो जाते हैं। फिर शुक्लध्यान का जो व्युत्सर्ग लक्षण है वह महत्त्वपूर्ण है, क्योंकि यही एक ऐसा लक्षण है जो शुक्लध्यान को अपने सम्यक् अर्थ में कायोत्सर्ग बना देता है, वीतराग-ध्यान बना देता है। सामान्यतया जनसाधारण ध्यान और कायोत्सर्ग को एक मान लेते हैं, किन्तु दोनों में अन्तर है। तप के बारह भेदों में ध्यान और कायोत्सर्ग को अलग-अलग माना गया है। ध्यान चित्त की एकाग्रता है, जबकि कायोत्सर्ग या व्युत्सर्ग निर्ममत्व का अभ्यास है। दूसरे शब्दों में ध्यान तो किसी एक विषय पर मन का एकाग्र होना है, जबकि व्युत्सर्ग में मन ‘अमन' हो जाता है। यही कारण है कि व्युत्सर्ग ध्यान की उच्चतम या अन्तिम अवस्था है। व्युत्सर्ग में निर्ममत्व के साथ-साथ त्याग भी है। व्युत्सर्ग 'पर' में अनात्म बुद्धि या निर्ममत्व बुद्धि है। वह योगनिरोध है। वह वीतरागता की साधना से भी एक चरण आगे बढ़ा हुआ है। यही कारण है कि व्युत्सर्ग शुक्लध्यान का लक्षण कहा गया है। एतदर्थ यह बताया गया है कि छद्मस्थ के सम्बन्ध में मन की एकाग्रता को ध्यान कहा जाता है, जबकि वीतराग के सम्बन्ध में काय कि निश्चलता को अर्थात् योग-निरोध की शैलेषी अवस्था को ध्यान कहा जाता है। शुक्लध्यान के फल या परिणाम की चर्चा करते हुए कहा गया है कि शुक्लध्यान के प्रथम दो चरणों का फल शुभास्रवजन्य अनुत्तर स्वर्ग का सुख है, जबकि अन्तिम दो चरणों का फल कर्मक्षय और मोक्ष की प्राप्ति है। कहा गया है कि तप से कर्मनिर्जरा होती है, कर्म-निर्जरा से मोक्ष की प्राप्ति होती है। ध्यान तप का प्रधान अंग है, अतः वह मोक्ष का हेतु है। अन्त में अनेक दृष्टान्तों द्वारा ध्यान मोक्ष का हेतु है इस बात को सिद्ध किया गया है और कहा गया है कि ध्यान सभी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525064
Book TitleSramana 2008 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreeprakash Pandey, Vijay Kumar
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year2008
Total Pages236
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size10 MB
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