SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 46
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ध्यानशतक : एक परिचय : ४१ भी यह सिद्ध होता है कि यह गाथा मलधारी हेमचन्द्र के टिप्पण के बाद ही प्रक्षिप्त हुई होगी अर्थात् ईसा की बारहवीं शती के पश्चात् ही प्रक्षिप्त हुई होगी। __ यह सत्य है कि पं. दलसुखभाई मालवणिया ने 'गणधरवाद' की प्रस्तावना में भी ध्यानशतक/झाणज्झयण के जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण द्वारा रचित होने में संदेह व्यक्त किया है। उनके संदेह का आधार भी हरिभद्रीय टीका और मलधारी हेमचन्द्र के टिप्पणी में कर्ता के नाम का अनुल्लेख ही है। पं. बालचन्द्र जी, पं. दलसुखभाई के इस संदेह से तो सहमत होते हैं, परन्तु पं. दलसुखभाई के इस निर्णय को स्वीकार क्यों नहीं करते हैं कि यह आवश्यकनियुक्तिकार की कृति है। पं. दलसुखभाई ‘गणधरवाद' की भूमिका में स्पष्टतः यह लिखते हैं कि 'हरिभद्रसूरि ने इसे जो शास्त्रान्तर कहा है, इससे यह स्वतंत्र ग्रन्थ है, यह तो निश्चित है, किन्तु यह आवश्यकनियुक्ति के रचयिता की कृति नहीं है यह उससे फलित नहीं होता है। उसके प्रारम्भ में योगीश्वर और जिन को नमस्कार किया गया है, इस कारण से हरिभद्रसूरि इसे आवश्यकनियुक्तिकार की कृति नहीं मानते हों, यह तो हो नहीं सकता। कारण यह है कि किसी नवीन प्रकरण को प्रारम्भ करते हुए नियुक्तियों में कितनी ही बार तीर्थंकरों को नमस्कार किया गया है। अतः उसे नियुक्तिकार भद्रबाहु (द्वितीय) की ही कृति माननी चाहिए।' यद्यपि इस ग्रन्थ की शैली एवं भाषा की नियुक्ति की शैली और भाषा से निकटता है, अत: उसे नियुक्तिकार की कृति मानने में विशेष बाधा नहीं है। पं. बालचन्द्र जी यह 'झाणज्झयण' जिनभद्रगणि की कृति नहीं है इस हेतु पंडित दलसुखभाई के तर्क का अपने पक्ष में उपयोग करते हैं, और उनके इस निर्णय को कि यह ग्रन्थ नियुक्तिकार की कृति है, को स्वीकार नहीं करते हैं और न ही वे इसका तार्किक खण्डन ही करते हैं। संभवतः उन्हें इसमें यही कठिनाई प्रतीत होती है कि चाहे इसे नियुक्तिकार की कृति माने या भाष्यकार की कृति माने दोनों ही स्थितियों में यह श्वेताम्बर परम्परा की कृति ही ठहरती है। वे किसी अन्य आचार्य की कृति मानते हैं, किन्तु वे यह भी सिद्ध नहीं कर पाते हैं कि यह किस अन्य आचार्य की कृति है। केवल इस आधार पर कि आचार्य हरिभद्र ने अपनी टीका में और आचार्य मलधारी हेमचन्द्र ने अपने टिप्पण में इसे जिनभद्रगणि की कृति नहीं बताया हैइसे जिनभद्र की कृति मानने से इंकार कर देना समुचित नहीं है। क्योंकि दोनों ने उनके सामने जो मूलपाठ था उसी पर टीका या टिप्पण लिखे। जब मूल में Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525064
Book TitleSramana 2008 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreeprakash Pandey, Vijay Kumar
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year2008
Total Pages236
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy