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________________ २२ : श्रमण, वर्ष ५९, अंक २ / अप्रैल-जून २००८ ७. बौद्ध दर्शन निर्विकल्पक ज्ञान को अभ्रान्त कहकर उसे प्रमाण के रूप में स्वीकार करता है, जबकि जैनदर्शन निर्विकल्पक ज्ञान को, जिसे वह अपनी पारिभाषिक शैली में 'दर्शन' कहता है, प्रमाण की कोटि में स्वीकार नहीं करता है। जैनों के यहाँ प्रमाण व्यवसायात्मक होने से सविकल्पक ही होता है, निर्विकल्पक दर्शन और बौद्धों का निर्विकल्पक प्रत्यक्ष प्रमाण नहीं हो सकता है। रत्नप्रभ की रत्नाकरावतारिका में इसका विस्तार से खण्डन किया गया है। ८. प्रमाण की परिभाषा को लेकर भी दोनों में कथंचित् मतभेद देखा जाता है। बौद्ध दर्शन में प्रमाण को स्व का प्रकाशक माना गया है, पर का प्रकाशक नहीं। क्योंकि उनके यहाँ योगाचार दर्शन में अर्थ अर्थात् प्रमाण का विषय (प्रमेय) भी वस्तुरूप न होकर ज्ञान रूप ही है। जबकि जैन दर्शन में प्रमाण को स्व- पर अर्थात् अपना और अपने अर्थ का प्रकाशक माना गया है (स्वपरव्यवसायात्मकं ज्ञानं प्रमाणम्) । जैनों के अनुसार प्रमाण स्वयं अपने को और अपने विषय, दोनों को ही जानता है। जैन और बौद्ध दोनों ही दर्शन 'प्रत्यक्ष' को कल्पनाजन्य तो नहीं मानते हैं, किन्तु जैनों के अनुसार कल्पना रहित होने का तात्पर्य है वस्तुसत् अर्थात् वस्तुगतसत्ता (Objective Reality) होना, जबकि बौद्ध दर्शन में कल्पना रहित होने का अर्थ अनुभूत सत् या आत्मगतसत्ता (Subjective Reality) है। ९. बौद्ध दार्शनिक अनुमान के दो भेद करते हैं- स्वार्थ और परार्थ । जैन दार्शनिक भी अनुमान के इन दोनों भेदों को स्वीकार करते हैं, किंतु जैन दार्शनिक सिद्धसेन 'न्यायावतार' में प्रत्यक्ष के भी स्वार्थ और परार्थ ऐसे दो भेद करते हैं। सिद्धसेन दिवाकर के अतिरिक्त कुछ अन्य जैन आचार्यों जैसे शांतिसूरि एवं वादिदेवसूरि ने भी इन भेदों का उल्लेख किया है। १०. प्रत्यक्ष प्रमाण के स्वरूप एवं भेदों को लेकर भी दोनों में मतभेद देखा जा सकता है। प्रथम तो जैसा कि पूर्व में उल्लेख किया गया है जहाँ बौद्ध दार्शनिक प्रत्यक्ष को कल्पना से रहित और निर्विकल्पक मानते हैं वहाँ जैन दार्शनिक उसे सविकल्पक कहते हैं। पुनः बौद्ध दार्शनिक जैनों के समान प्रत्यक्ष के सांव्यवहारिक और पारमार्थिक ऐसे दो भेद नहीं करते हैं। उनके यहाँ प्रत्यक्ष के चार भेद हैं- १. स्वसंवेदना प्रत्यक्ष २. इन्द्रिय Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525064
Book TitleSramana 2008 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreeprakash Pandey, Vijay Kumar
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year2008
Total Pages236
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size10 MB
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