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________________ ५. भारतीय दार्शनिक ग्रन्थों में प्रतिपादित बौद्ध धर्म एवं दर्शन : १९ मानते हैं। जैन चेतन (जीव) और जड़ (अजीव ) दोनों के सम्बन्ध में बहुतत्त्ववादी हैं, यद्यपि वे आकाश, धर्म और अधर्म को एक-एक स्वतंत्र तत्त्व ही मानते हैं। सांख्य पुरुष की अनेकता और प्रकृति का एकत्व मानता है। जबकि विज्ञानवादी और शून्यवादी बौद्ध तथा शांकर वेदान्त अद्वैतवादी हैं। ७. बौद्ध विज्ञानवाद जहाँ बाह्यार्थ का निषेध करता है, वहाँ जैन दर्शन, नैयायिक एवं मीमांसक के समान बाह्यार्थ की सत्ता को स्वीकार करता है। ज्ञातव्य है कि बौद्धों में भी सर्वास्तिवादी - सौत्रान्तिक एवं वैभाषिक बाह्यार्थ की सत्ता को स्वीकार करते हैं, फिर भी सौत्रान्तिक उसे प्रत्यक्ष का विषय न मानकर अनुमेय ही मानते हैं। ६. वस्तु की बहुआयामिता को आधार बनाकर जैनों ने अनेकांतवाद की स्थापना की। मीमांसकों ने भी इसका समर्थन किया, किन्तु बौद्ध निषेधमुखी होने से अनेकांत की अपेक्षा शून्यवाद की दिशा में अग्रसर हो गये, फिर भी शून्यवाद और अनेकांतवाद दोनों ही एकान्त का विरोध तो समान रूप से करते हैं । अन्तर यह है कि बौद्ध एकान्तवाद का खण्डन जहाँ निषेधमुख से करते हैं, वहाँ जैन प्रतिपक्ष में निषेधमुख से और स्वपक्ष में विधिमुख से करते हैं। शब्द और अर्थ के मध्य सम्बन्ध को लेकर जहाँ मीमांसक तादात्म्य सम्बन्ध मानते हैं, न्याय-वैशेषिक तदुत्पत्ति सम्बन्ध मानते हैं और जैन वाच्य-वाचक सम्बन्ध मानते हैं, वहीं बौद्ध शब्द और अर्थ में किसी भी प्रकार का सम्बन्ध नहीं मानते हैं। वे अपोहवाद के माध्यम से शब्द द्वारा अर्थबोध को घटित करते हैं, किन्तु शब्द को मात्र अपोहपरक या निषेधपरक मानने से उसकी वाच्यता सामर्थ्य अपूर्ण रहती है। वस्तुतः शब्द का विधिपरक अर्थात् 'ऐसा है' और निषेधपरक 'ऐसा नहीं है', यह उभय रूप ग्रहण करने पर ही पूर्ण अर्थबोध सम्भव होता है। ८. जहाँ तक विभज्यवादी दृष्टिकोण का प्रश्न है बौद्ध और जैन दोनों ही विभज्यवादी हैं दोनों ही ऐकांतिक प्रतिस्थापनाओं के विरोधी हैं और विश्लेषणपूर्वक उत्तर देने की बात करते हैं। ९. जैनों ने अपनी अनैकांतिक दृष्टि के कारण बौद्धों की अनेक अवधारणाओं का उनकी विरोधी अवधारणाओं के साथ समन्वय किया है। For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.525064
Book TitleSramana 2008 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreeprakash Pandey, Vijay Kumar
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year2008
Total Pages236
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size10 MB
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