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श्रमण, वर्ष ५९, अंक २/अप्रैल-जून २००८
पुस्तक- सुविधि दर्शन, लेखक- भाई श्री शशिभाई, प्रका०- वीतराग सत् साहित्य प्रसारक ट्रस्ट, भावनगर, संस्करण प्रथम २००४ ई०सन्, पृ०- २०+२९२=३१२, मूल्य- रू० ४०.००।
प्रस्तुत कृति में निजस्वरूप को प्राप्त करने की विधि का उल्लेख है। स्वरूप दो प्रकार के होते हैं- बाह्य और आन्तरिक। लेकिन बाह्य और आन्तरिक जगत् में अंतर होता है। बाह्य जगत् में भौतिकता का अस्तित्व है तो आन्तरिक जगत् में भावों का महत्त्व है। भावों की दुनियाँ से जब व्यक्ति का परिचय हो जाता है तब वह उसे जानने व समझने लगता है फलतः बाह्य दुनियाँ से उसका सम्पर्क क्षीण होने लगता है। स्वभाव और विभाव के परिचय के साथ ही उसे स्व और पर का भेद-ज्ञान होता है। इस प्रकार आत्मभावना से प्रारम्भ की गई यह यात्रा अवलोकन, भाव परिचय और भेद-ज्ञान के पड़ाव को पार करती हुई स्वानुभाव को प्राप्त होती है।
इस ग्रन्थ के सारे प्रवचन ऑडियो कैसेट से यथावत लिए गये हैं और उसे कुशलतापूर्वक सम्पादित कर पुस्तकाकार रूप दिया गया है। भाईश्री के वक्तव्य में वह
ओज है जो मूल को सही रूप में प्रस्तुत कर सके। इस कृति में लेखक के बारह उपदेशों का संकलन है जिन्हें तिथि सहित पुस्तक में उल्लेखित किया गया है। अध्यात्म की पावन गंगा का प्रवाह मुमुक्षु को उसमें गोते लगाने के लिए प्रेरित करता है और वह उसमें बहते हुए भेद-ज्ञान को प्राप्त कर आत्म-जगत् में प्रवेश पाता है। साहित्य की विश्लेषणात्मक शैली उत्कृष्ट है। आत्मविश्लेषक पाठकों के लिए यह ग्रन्थ पठनीय एवं संग्रहणीय है।
डॉ० सुधा जैन वरिष्ठ प्राध्यापक पार्श्वनाथ विद्यापीठ
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