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________________ - श्रमण, वर्ष ५९, अंक २ अप्रैल-जून २००८ साहित्य सत्कार आहती दृष्टि,लेखिका :डॉ० समणी मंगलप्रज्ञा, प्रकाशक : कमलेशचतुर्वेदी,प्रबन्धकआदर्श साहित्य संघ २१०,दीनदयाल उपाध्यायमार्ग,नई दिल्ली-११०००२,संस्करणः तृतीय (सन् २००८), आकार-डिमाई, पृष्ठ संख्या : ३८५, मूल्य : पचासी रुपये समीक्षा कृति 'आहती दृष्टि' तेरापन्थ धर्मसंघ के दशम गुरु युगप्रधान आचार्य महाप्रज्ञ की शिष्या एवं जैन विश्व भारती विश्वविद्यालय, लाडनूं (राज.) की माननीया कुलपति डॉ० समणी मंगलप्रज्ञा जी के द्वारा समय-समय पर जैनदर्शन के विविध पक्षों पर लिखे गये शोध-निबन्धों का संग्रह है। ग्रन्थ के प्रारम्भ में श्री, ही और धी सम्पदा के रूप में आचार्य महाप्रज्ञ, युवाचार्य महाश्रमण और साध्वीप्रमुखा कनकप्रभाजी ने अपना मङ्गल-आशीर्वाद एवं शुभकानाएँ व्यक्त की हैं। साथ ही संस्कृतविद्या एवं विविध भारतीय दर्शनों के यशस्वी विद्वान् प्रोफेसर डॉ० दयानन्द भार्गव ने भूमिका लिखी है। तदनन्तर लेखिका द्वारा लिखित प्रस्तावना है। अन्त में सन्दर्भ ग्रन्थ-सूची है। इस प्रकार सम्पूर्ण ग्रन्थ अपने आप में परिपूर्ण है। लेखिका ने अपने इस ग्रन्थ में जीव-जगत् से लेकर जैनदर्शन के प्रायः सभी सिद्धान्तों को अपनी लेखनी का विषय बनाकर पृथक्-पृथक् स्वतन्त्र निबन्धों में समेटने का प्रयास किया है। इस क्रम में उन्होंने जहाँ अपने शोध-निबन्धों में जीव, आत्मा, परमात्मा, योग, ध्यान, अनुप्रेक्षा, सम्यग्दर्शन, अनेकान्त, नय, निक्षेप, स्याद्वाद, सप्तभङ्गी, कर्म सिद्धान्त, मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान, मन:पर्यवज्ञान, केवलज्ञान और प्रमाण आदि को समाहित करने का प्रयास किया है, वहीं उन्होंने आचारांग के धुताध्ययन, द्वादशारनयचक्र के नय-विवेचन, भगवती के सप्तभङ्गी सिद्धान्त को भी रेखाङ्कित किया है तथा विशेषावश्यकभाष्य की संक्षेप में महत्त्वपूर्ण जानकारी दी है। साथ ही उन्होंने बौद्धदर्शन जैसे समकालीन दर्शन के प्रमुख सिद्धान्त विभज्यवाद को जैनागमों के परिप्रेक्ष्य में देखने का प्रयास किया है और निष्कर्ष स्वरूप यह भी कहने का साहस किया है कि विभज्यवाद अनेकान्तवाद का प्राचीन रूप है। इसकी पुष्टि में उन्होंने जैनागम भगवतीसूत्र और शीलाङ्कवृत्तिकार के मतों को भी उद्धृत किया है। लेखिका ने अपने इन शोध-निबन्धों में विशाल दृष्टिकोण को अपनाते हुये सभी दार्शनिक सिद्धान्तों में नयदृष्टि को स्वीकार किया है और अन्य दर्शनों के साथ समन्वय स्थापित करने का सार्थक प्रयास किया है, जो वर्तमान युग के अनुरूप है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525064
Book TitleSramana 2008 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreeprakash Pandey, Vijay Kumar
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year2008
Total Pages236
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size10 MB
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