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१४ : श्रमण, वर्ष ५९, अंक २ / अप्रैल-जून २००८
छः दर्शनों की मीमांसा की है, किन्तु इस कृति में हरिभद्र जैसी उदारता नहीं है। यह मुख्यतया जैनमत की स्थापना और अन्य मतों के खण्डन के लिये लिखा गया है। इसकी एकमात्र विशेषता यह है कि इसमें महाभारत, स्मृति, पुराण आदि के आधार पर जैनमत का समर्थन किया गया है।
पं. दलसुखभाई मालवणिया ने 'षड्दर्शनसमुच्चय' की प्रस्तावना में इस बात का भी उल्लेख किया है कि सोमतिलकसूरिकृत 'षड्दर्शनसमुच्चय की वृत्ति के अन्त में अज्ञातकृत एक कृति मुद्रित है। इसमें भी जैन, न्याय, बौद्ध, वैशेषिक, जैमिनीय, सांख्य और चार्वाक-ऐसे सात दर्शनों का संक्षेप में परिचय दिया गया है, किन्तु अन्त में अन्य दर्शनों को दुर्नय की कोटि में रखकर जैन दर्शन को उच्च श्रेणी में रखा गया है। इस प्रकार इसका लेखक भी अपने को साम्प्रदायिक अभिनिवेश से दूर नहीं रख सका।
फिर भी इतना निश्चित है कि हरिभद्र आदि जैन दार्शनिकों ने अपने दर्शनसंग्राहक में अधिक उदारता का परिचय दिया है और इन सभी में बौद्ध दर्शन का प्रस्तुतीकरण अपेक्षाकृत अधिक प्रामाणिकता से हुआ है।
इस प्रकार हम देखते हैं कि दर्शन-संग्राहक ग्रन्थों की रचना में भारतीय इतिहास में हरिभद्र आदि जैन दार्शनिकों ने निष्पक्ष भाव से और पूरी प्रामाणिकता के साथ अपने ग्रन्थों में अन्य दर्शनों का विवरण दिया है। इस क्षेत्र में वे अभी तक अद्वितीय है। दर्शन संग्राहक ग्रन्थों की यह परम्परा आधुनिक युग में भी देखी जाती है। भारतीय दर्शन पर लिखे गये समकालीन लेखकों- सुरेन्द्र नाथ दासगुप्ता, डॉ० राधाकृष्णन्, प्रो० जदुनाथ सिन्हा, प्रो० चन्द्रधर शर्मा, डॉ० उमेश मिश्र, पं० बलदेव उपाध्याय आदि के ग्रन्थों में बौद्ध दर्शन और उसकी विभिन्न निकायों का उल्लेख उपलब्ध होता है, यद्यपि प्रो. राधाकृष्णन् ने बौद्ध दर्शन की समीक्षा भी की है, किन्तु अधिकांश लेखकों का प्रयत्न यथावत् प्रस्तुतीकरण का रहा है। समीक्षा में भी शिष्ट भाषा का प्रयोग ।
दर्शन के क्षेत्र में अपनी दार्शनिक अवधारणाओं की पुष्टि तथा विरोधी अवधारणाओं के खण्डन के प्रयत्न अत्यन्त प्राचीनकाल से होते रहे हैं। प्रत्येक दर्शन अपने मन्तव्यों की पुष्टि के लिए अन्य दार्शनिक मतों की समालोचना करता है। स्व-पक्ष का मण्डन तथा पर-पक्ष का खण्डन-यह दार्शनिकों की सामान्य प्रवृत्ति रही है। हरिभद्र भी इसके अपवाद नहीं हैं। फिर भी उनकी यह विशेषता
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