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________________ १४६ : श्रमण, वर्ष ५९, अंक २/अप्रैल-जून २००८ का ही एक रूप है, किन्तु वह हड्डी के रूप में परिणत चूना सजीव है। इसी प्रकार किसी प्राणी के शरीर में जो लोहतत्त्व है वह सजीव है किन्तु मृत शरीर में रहा हुआ लोह तत्त्व या चूना निर्जीव है। इसका एक प्रमाण यह है कि यदि किसी जीवित शरीर की हड्डी टूट जाती है और यदि उसे सटा दिया जाये तो वह कालान्तर में पुनः जुड़ जाती है। मृत शरीर की हड्डी को अथवा जीवित शरीर से बाहर निकाली गई हड्डी को चाहे हम कितना ही समीप रख दे वह जुड़ नहीं पाती है। इसी प्रकार प्राणी के शरीर में परिणत लोह आदि धातुएं अथवा प्राणी के शरीर का जलीय तत्त्व अथवा प्राणी शरीर का वायुतत्त्व या प्राणी शरीर का अग्नि तत्त्व- ये सब तब तक जीवित हैं जब तक जीव उस शरीर को छोड़ नहीं देता है। प्रत्येक प्राणी के शरीर में पृथ्वी, अप, तेजस और वायुतत्त्व ये चारों तत्त्व होते हैं, किन्तु जब तक ये चारों तत्त्व उस शरीर के अंगीभूत हैं उन्हें जीवित ही मानना होगा। संक्षेप में कहें तो किसी भी प्राणी के चाहे वह स्थूल हो वा सूक्ष्म उसके शरीर रूप में परिणित पृथ्वीतत्त्व, अप्तत्त्व, अग्नितत्त्व और वायुतत्त्व ये सजीव हैं, यह मान्यता तर्कसंगत और विज्ञान सम्मत लगती है। कोई भी जीवित शरीर अपने अस्तित्व को इन चारों तत्त्वों के अभाव में नहीं रख सकता है। जीव जब तक संसार में है वह शरीरयुक्त है और जो भी जीवित शरीर हैं वे कहीं-न-कहीं इन चारों तत्त्वों से ही बने हैं, अतः जीवित शरीर में उपस्थित इन चारों तत्त्वों को सजीव मानना ही होगा। __ मेरी दृष्टि में जैन दार्शनिकों ने पृथ्वी आदि के साथ जो 'काय' शब्द का प्रयोग किया है वह इसी अर्थ को द्योतित करता है कि जीवित शरीर में परिणित हुए पृथ्वी आदि महाभूत स्वयं जीवित हैं। यह बात अलग है कि पृथ्वी आदि चारों तत्त्व शरीर में किस रूप में और कितनी मात्रा में अपना अस्तित्व रख रहे हैं, जैसे किसी प्राणी का शरीर रुधिर आदि से युक्त होता है तो किसी के शरीर में रुधिर आदि की स्थिति नहीं भी पाई जाती है, किन्तु उनमें पृथ्वी, अप्, अग्नि और वायु ये चारों तत्त्व होते हैं, यह ध्यान रखने योग्य है कि जहाँ भी सजीव शरीर है और वह जिन तत्त्वों से बना है वे तत्त्व भी सजीव शरीर के रूप में जीवित ही हैं, मृत नहीं। पृथ्वी, अप्, अग्नि और वायु इन चार का ग्रहण और इन चारों का शस्त्र रूप में प्रयोग कोई भी प्राणी अपने अस्तित्व के लिये ही करता है। आचारांगसूत्र में कहा गया है कि - ‘इमस्सचैवजीविय्याए' अर्थात् ये जीवन के लिए हैं इनका ग्रहण और इनका शस्त्र रूप में प्रयोग, इनकी हिंसा, ये सब शरीर से सम्बन्धित हैं और जो जीवित शरीर से सम्बन्धित क्रियाएं हैं वे निर्जीव या मृत कैसे कही जा सकती हैं। इस समस्त चर्चा के आधार पर हम इस निष्कर्ष पर पहुँच सकते हैं कि पृथ्वी, जल, वायु और अग्नि ये चारों तत्त्व जब किसी जीवित शरीर रूप में हैं तो वे सजीव Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525064
Book TitleSramana 2008 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreeprakash Pandey, Vijay Kumar
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year2008
Total Pages236
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size10 MB
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