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________________ श्रमण, वर्ष ५९, अंक २ अप्रैल-जून २००८ षट्जीवनिकाय की अवधारणाः एक वैज्ञानिक विश्लेषण षट्जीवनिकाय की अवधारणा जैनों की विशिष्ट अवधारणा है। इस षट्जीवनिकाय की अवधारणा के अन्तर्गत निम्न छ: प्रकार के जीव माने गये हैं- १. पृथ्वीकायिक जीव, २. अप्कायिक जीव, ३. तेजस्कायिक जीव, ४. वायुकायिक जीव, ५. वनस्पतिकायिक जीव और ६. त्रसकायिक जीव। षट्जीवनिकाय के सन्दर्भ में जैन दर्शन में प्राचीनतम उल्लेख आचारांगसूत्र के प्रथम श्रुतस्कन्ध के प्रथम अध्ययन, उत्तराध्ययन के छत्तीसवें जीवाजीवविभक्ति नामक अध्ययन और दशवैकालिकसूत्र के चतुर्थ षट्जीवनिकाय नामक अध्ययन में मिलता है। यद्यपि सर्वप्रथम आचारांगसूत्र के प्रथम श्रुतस्कन्ध के प्रथम अध्ययन के दूसरे से सातवें उद्देशकों में इन छ: प्रकार के जीवों का निर्देश हुआ है, किन्तु आचारांगसूत्र में एक विशेषता यह हमें देखने को मिलती है कि वहां इनके लिये कायिक शब्द का प्रयोग न करके उसके स्थान पर सत्यकथा का प्रयोग हुआ है। 'सत्य' शब्द का संस्कृत रूप एवं अर्थ शस्त्र होता है, अत: आचारांगसूत्र के निर्देशानुसार ये छः प्रकार के शस्त्र हैं, जिससे स्वकाय की और अन्यकाय की हिंसा की जाती है। किन्तु जिज्ञासुओं के द्वारा यहां यह शंका अवश्य ही उठाई जा सकती है कि उन्हें शस्त्र क्यों कहा गया। यह ठीक है कि जीवित प्राणी भी हिंसा की क्रिया अपने शरीर आदि के माध्यम से करते हैं, किन्तु इसके अतिरिक्त अजीव द्रव्य भी हिंसा के साधन बनते ही हैं अर्थात् अजीव द्रव्य भी शस्त्र रूप में परिणत हो सकते हैं। जिज्ञासुओं के मन में यह प्रश्न उत्पन्न हो सकता है कि यदि आचारांगसूत्र में पृथ्वी आदि शस्त्र कहे गये हैं तो इससे उनमें जीवत्व की सिद्धि नहीं हो सकती है? जबकि जैन दर्शन पृथ्वी, अप, अग्नि और वायु को भी जीव रूप मानता है। पुनः चाहे आचारांगसूत्र में अलग से पृथ्वीकायिक अप्कायिक जीव आदि का उल्लेख न हो किन्तु उसमें प्रथम अध्याय के अन्त में 'षट्जीवनिकाय' ऐसा उल्लेख तो है ही, अतः इस शंका को कोई अवकाश नहीं है। ___ज्ञातव्य है कि पुराकाल से लेकर अब तक भारतीय चिन्तन के प्राय: सभी दर्शनों (चार्वाक को छोड़कर) में पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु तथा आकाश ये पञ्चमहाभूत माने गये हैं और इन पञ्चमहाभूतों को सांख्य आदि दर्शन में सामान्य तथा अजीव ही माना गया है, किन्तु वैदिक काल में पृथ्वी, अप्, अग्नि और वायु इन चार को देव Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525064
Book TitleSramana 2008 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreeprakash Pandey, Vijay Kumar
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year2008
Total Pages236
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size10 MB
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