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________________ १३६ : श्रमण, वर्ष ५९, अंक २ / अप्रैल-जून २००८ विक्रम संवत् का प्रवर्तन हुआ और यह मान्यता आज बहुजन सम्मत भी है । यद्यपि कहीं ४६६ वर्ष और ४५ दिन पश्चात् विक्रम संवत् का प्रवर्तन माना गया है। तिलोयपण्णत्त का जो प्राचीनतम (लगभग पांचवी - छठी शती) उल्लेख है उसमें वीर निर्वाण के ४६१ वर्ष पश्चात् शक राजा हुए- ऐसा जो उल्लेख है उसके आधार पर यह तिथि अधिक उचित लगती है, क्योंकि कालक कथा के अनुसार भी वीर निर्वाण के ४६१ वर्ष पश्चात् कालकसूरि ने गर्दभिल्ल को सत्ता से च्युत कर उज्जैनी में शक शाही को गद्दी पर बिठाया और चार वर्ष पश्चात् गर्दभिल्ल के पुत्र विक्रमादित्य ने उन्हें पराजित कर पुन: उज्जैन पर अपना शासन स्थापित किया । पुनः वीर निर्वाण के ६०५ वर्ष और पांच माह पश्चात् शकों ने मथुरा पर अपना अधिकार कर शक शासन की नींव डाली और शक संवत् का प्रवर्तन किया। इस बार शकों का शासन अधिक स्थायी रहा । इसका उन्मूलन चन्द्रगुप्त द्वितीय ने किया और विक्रमादित्य का विरुद धारण किया। मेरी दृष्टि में उज्जैनी के शक - शाही को पराजित करने वाले का नाम विक्रमादित्य था, जबकि चन्द्रगुप्त द्वितीय की यह एक उपाधि थी । प्रथम ने शकों से शासन छीनकर अपने को 'शकारि' विरुद से मण्डित किया था। क्योंकि शकों ने उसके पिता का राज्य छीना था अतः उसके शक अरि या शत्रु थे, अतः उसका अपने को शकारि कहना अधिक संगत था। दूसरे विक्रमादित्य ने अपने शौर्य से शकों को पराजित किया था अतः विक्रम= पौरुष का सूर्य था । , यद्यपि निशीथचूर्णि में कालकाचार्य की कथा विस्तार से उपलब्ध है, किन्तु उसमें गर्द भिल्ल द्वारा कालक की बहन साध्वी सरस्वती के अपहरण, कालकाचार्य द्वारा सिन्धु देश (परिसकूल) से शकों को लाने गर्दभिल्ल की गर्दभी विद्या को विफल कर गर्दभिल्ल को पराजित कर और सरस्वती को मुक्त कराकर पुनः दीक्षित करने आदि के ही उल्लेख हैं । उसमें विक्रमादित्य सम्बन्धी कोई उल्लेख नहीं है। जैन साहित्य में विक्रमादित्य सम्बन्धी हमें जो रचनाएँ उपलब्ध हैं उनमें बृहत्कल्पचूर्णि (७वीं शती), प्रभावकचरित्र (१२३४ ई०), प्रबन्धकों (१३३७), प्रबन्धचिन्तामणि (१३०५ ई०), पुरातन प्रबन्ध संग्रह, कहावली (भद्रेश्वर), शत्रुञ्जय महात्म्य, लघु शत्रुञ्जयकल्प, विविधतीर्थकल्प (१३३२) विधि कौमुदी, अष्टाह्निक व्याख्यान, दुषमाकाल, श्रमण संघस्तुति, पट्टावली सारोद्धार, खरतरगच्छ सूरि परम्परा प्रशस्ति, विषापहारस्तोत्र भाष्य, कल्याणमन्दिरस्तोत्र, सप्ततिकावृत्ति विचारसार प्रकरण, विक्रमचरित्र आदि अनेक ग्रन्थ हैं, जिनमें विक्रमादित्य का इतिवृत किञ्चत् भिन्नताओं के साथ उपलब्ध है। खेद मात्र यही है ये सभी ग्रन्थ प्रायः सातवीं शती के पश्चात् के हैं। यही कारण है कि इतिहासज्ञ इनकी प्रामाणिकता पर संशय करते हैं । किन्तु आचार्य हस्तीमल जी ने दस ऐसे तर्क प्रस्तुत किये हैं जिससे इनकी प्रामाणिकता पर विश्वास किया जा सकता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525064
Book TitleSramana 2008 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreeprakash Pandey, Vijay Kumar
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year2008
Total Pages236
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size10 MB
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