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________________ १३४ : श्रमण, वर्ष ५९, अंक २ / अप्रैल-जून २००८ अर्थात् पेट के लिए जितना आवश्यक है उतने पर ही व्यक्ति का अधिकार है जो इससे अधिक पर अपना अधिकार जमाता है वह 'चोर' है। जैन दर्शन इससे भी एक कदम आगे बढ़ कर कहता है- जो धन, सम्पत्ति आदि पर पदार्थ हैं, उन पर हमारा कोई स्वामित्व हो ही नहीं सकता। 'पर' को अपना मानना उस पर मालिकाना हक जताना मिथ्यादृष्टि है। अधिकतम हमें आवश्यकतानुरूप उनके 'उपयोग' का अधिकार है, स्वामित्व का अधिकार नहीं है (We have only use right of them, not the ownership) दूसरे यह भी कहा जाता है कि यदि पर-पदार्थों के प्रति आसक्ति या रागभाव नहीं होगा - उदासीनवृत्ति होगी तो फिर जीवन में सक्रियता समाप्त हो जायेगी, व्यक्ति अकर्मण्य बन जायेगा, क्योंकि रागात्मकता या ममत्त्ववृत्ति या स्वामित्व की भावना ही व्यक्ति को सक्रिय बनाती है। इसके उत्तर में जैन जीवनदृष्टि एक सूत्र देती है कि - कर्तव्यबुद्धि (Sense of duty) से जीओ न कि ममत्त्वबुद्धि (Sense of attachment) से। इस सम्बन्ध में जैन परम्परा में निम्न दोहा प्रचलित है- जो उसकी जीवन-दृष्टि को स्पष्ट कर देता है - सम्यक् दृष्टि जीवड़ा करे कुटुम्ब परिपाल । अन्तरसूंन्यारो रहे, ज्यूं धाया खिलावेबाल । । इस कथन का सार यह है 'कर्तव्यबुद्धि से जीवन जीओ, ममत्व से नहीं।' Jain Education International * For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525064
Book TitleSramana 2008 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreeprakash Pandey, Vijay Kumar
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year2008
Total Pages236
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size10 MB
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