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________________ जैन जीवन-दृष्टि : १२९ जिजीविषा प्रधान है, सभी अस्तित्व और सुख के आकांक्षी हैं - अहिंसा का आधार यही मनोवैज्ञानिक सत्य है। अहिंसा का अधिष्ठान भय नहीं है, जैसा कि पाश्चात्य दार्शनिक मैकेन्जी ने अपने ग्रन्थ 'हिन्दू एथिक्स' में मान लिया है, क्योंकि 'भय' तो हिंसा का मूल कारण है। पारस्परिक भय और तद्जन्य अविश्वास से ही हिंसा का जन्म होता है। आज विश्व में हिंसक शस्त्रों की प्रतिस्पर्धा और देशों के मध्य जो शक्ति-युद्ध का वातावरण बना हुआ है उसका कारण पारस्परिक अविश्वास और भय की वृत्ति ही है, अतः जैन जीवन-दर्शन का मूल सिद्धान्त है- परस्पर अभय का विकास करो, क्योंकि पारस्परिक अभय और विश्वास से ही अहिंसा का विकास होगा। अतः अहिंसा का अधिष्ठान या मनोवैज्ञानिक आधार आत्मतुल्यता, पर-पीड़ा की आत्मवत् अनुभूति और अभयनिष्ठा ही है। दूसरे प्राणियों के जीवित रहने और जीवन जीने के साधनों पर सभी के समान अधिकार की तार्किक स्वीकृति से ही अहिंसा का विकास सम्भव है। 'आत्मवत् सर्व भूतेषु'की जीवन-दृष्टि ही वह तार्किक आधार है जो अहिंसा कासम्पोषक है। इस प्रकार अहिंसा की प्रतिष्ठा के मूलाधार हैं-जीवन के प्रति सम्मान,अभय की प्रतिष्ठा, समत्ववृत्ति और आत्मतुला के तार्किक आधार पर दूसरों की पीड़ा को आत्मवत् समझना। तीसरे सामान्यतया यह मान लिया जाता है कि हिंसा नहीं करना, किसी को मारना . या कष्ट नहीं देना ही अहिंसा है- यह जैन दृष्टि से अहिंसा की आधी-अधूरी अवधारणा है। हिंसाका प्रतिपक्षअहिंसा है। यह अहिंसा निषेधात्मक परिभाषा है, लेकिन हिंसा नहीं करना मात्र अहिंसा नहीं है। निषेधात्मक अहिंसा जीवन के समग्र पक्षों का स्पर्श नहीं करती है। साथ ही हिंसा या अहिंसा का सम्बन्ध मात्र दूसरों से नहीं है। जैन चिन्तकों का कहना है कि हिंसा स्वयं की भी होती है और दूसरों की भी होती है। मात्र यही नहीं व्यक्ति पहले स्वयं की हिंसा करता है, फिर वह दूसरों की हिंसा करता है। आत्महिंसा के बिना 'पर' की हिंसा सम्भव ही नहीं है। दूसरों की हिंसा वस्तुतः अपनी हिंसा है और दूसरों के प्रति करुणा या दया अपने प्रति करुणा या दया है। इसे अधिक स्पष्टता की दृष्टि से समझने के लिए यह जान लेना आवश्यक है कि दूसरे की हिंसा के पीछे कहीं न कहीं राग-द्वेष या क्रोध, मान, माया एवं लोभ की वृत्ति कार्य करती है - इनसे युक्त होने का अर्थ कहीं न कहीं तनावग्रस्त होना ही है, इनकी उपस्थिति हमारे आत्मिक शांति को भंग कर देती है, शास्त्रीय भाषा में कहें तो व्यक्ति स्वभाव दशा को छोड़कर विभाव दशा (तनावग्रस्त अवस्था) में आ जाता है। अपने शान्तिमय निजस्वभाव का यह परित्याग ही तो 'स्व' की हिंसा है।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525064
Book TitleSramana 2008 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreeprakash Pandey, Vijay Kumar
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year2008
Total Pages236
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size10 MB
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