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श्रमण, वर्ष ५९, अंक २
अप्रैल-जून २००८
'नवदिगम्बर सम्प्रदाय' की कल्पना कितनी समीचीन?
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डॉ० हम्पा नागराजैय्या का 'जैन जनरल', जनवरी २००८ में 'नवदिगम्बर सम्प्रदाय' नामक एक लेख प्रकाशित हुआ है। सामान्यतया श्वेताम्बर और दिगम्बर परम्पराओं से तो हम सभी परिचित हैं। आदरणीय डॉ० आदिनाथ नेमिनाथ उपाध्ये, पं० नाथूरामजी प्रेमी आदि के कुछ आलेखों तथा डॉ० कुसुम पटोरिया की ‘यापनीय परम्परा और उसका साहित्य' एवं मेरी 'जैन धर्म का यापनीय सम्प्रदाय' नामक पुस्तकों के प्रकाशित होने से जैन समाज का प्रबुद्ध वर्ग एवं विद्वत्जन यापनीय सम्प्रदाय से भी सुपरिचित हो चुका है। लेकिन परिणाम यह हुआ कि दिगम्बर सम्प्रदाय में मान्य अनेक महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ यापनीय परम्परा के माने जाने लगे। फलतः इन ग्रन्थों को दिगम्बर सिद्ध करने का एक उपक्रम प्रारम्भ हुआ। डॉ० नागराजैय्या का प्रस्तुत आलेख भी उसी की एक कड़ी है। इस आलेख के द्वारा डॉ० हम्पा नागराजैय्या ने एक 'नवदिगम्बर सम्प्रदाय' की कल्पना की है और यह बताने का प्रयास किया है कि जिन ग्रन्थों को यापनीय कहा जा रहा है, वे दिगम्बर सम्प्रदाय के हैं। किन्तु उनकी यह कल्पना ऐतिहासिक साक्ष्यों पर आधारित है या नहीं? यही इस आलेख का मुख्य विचारणीय बिन्दु है। साथ ही इस आलेख में उनके द्वारा प्रस्तुत प्रमाणों की समीक्षा भी की गई है।
जहाँ तक श्वेताम्बर, दिगम्बर और यापनीय सम्प्रदायों का प्रश्न है, उनके सम्बन्ध में प्राचीन और मध्यकालीन अनेक साहित्यिक और अभिलेखीय साक्ष्य उपलब्ध होते हैं। यापनीय सम्प्रदाय के सम्बन्ध में ई० सन् की ५वीं शती से लेकर लगभग १४वीं शती तक के अनेकों साहित्यिक और अभिलेखीय साक्ष्य उपलब्ध हैं। मेरा प्रथम प्रश्न है कि क्या इस 'नवदिगम्बर सम्प्रदाय' के सम्बन्ध में कोई एक भी अभिलेखीय और साहित्यिक साक्ष्य उपलब्ध है और यदि ऐसा कोई भी साक्ष्य उपलब्ध नहीं है, तो फिर उनकी इस कल्पना की सत्यता का आधार क्या है? जहाँ तक मेरी जानकारी का प्रश्न है हमें श्वेताम्बर, निर्ग्रन्थ (दिगम्बर) और यापनीय संघों के साथ-साथ कूर्चकसंघ और मूलसंघ के भी प्राचीन अभिलेखीय उल्लेख मिलते हैं। जहाँ तक मूलसंघ का प्रश्न है, वह यापनीय संघ का ही पूर्वरूप है, इसे मैंने अपनी पुस्तक 'जैनधर्म का यापनीय
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