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वितरागी पथ आलोकित )
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गिनी प्रामीण
रेत पर रतनार पाँव चल पड़े हैं
SRAMANA छोड़ माया
MENUFARMERADH जगत्-मिथ्या
वितरागी पथ आलोकित! श्वेत आभा धवल मन तप-साधना की मूर्ति भी राग नहीं विराग नहीं सम्मोहन संसार नहीं!
अनन्य आकर्षण वितरागी पथ आलोकित!
जीवन का अवसान भी कालिमा के पार दिखती
मृत्यु का आलोक स्वर्णपाँखी सूर्य किरणें
सौन्दर्य का संन्यास भी दिवस का अवसान भी
वितरागी पथ आलोकित! सौन्दर्य से अभिभूत है
सच भी हैभानु की हजार किरणें
अंतिम समय वितरागी पथ आलोकित!
तन धवल मन से चल पड़ी है
श्वेत-सा वेदाग मन श्वेत आभा
सौन्दर्य को है खोलता सम्पूर्णता का पार कर
वितरागी पथ आलोकित! शून्य की संवेदना में
डॉ० धूपनाथ प्रसाद, प्राध्यापक जीवन को तार कर
महात्मा गांधी अन्तरराष्ट्रीय हिन्दी वितरागी पथ आलोकित! विश्वविद्यालय, वर्धा- ४४२००१ * उपर्युक्त पंक्तियाँ श्रमण - वर्ष ५८, अंक २-३, अप्रैल-सितम्बर २००७ के कवर पृष्ठ को देखकर कविहृदय अपनी लेखनी को हस्तपाश में बाँध नहीं पाया और अपनी भावनाओं को कुछ इस तरह से व्यक्त किया, जो आपके समक्ष है। - सम्पादक