SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 89
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ८४ 1: श्रमण, वर्ष ५८, अंक २-३ / अप्रैल-सितम्बर २००७ ३. मिश्र गुणस्थान - यह गुणस्थान आत्मा की वह अवस्था है जिसमें न केवल सम्यक् - दृष्टि होती है और न केवल मिथ्या दृष्टि। इस अवस्था में साधक सत्यअसत्य, शुभाशुभ में भेद नहीं कर पाने कारण अनिर्णय एवं अनिश्चय की स्थिति में रहता है। इस गुणस्थान में आत्मा प्रथम गुणस्थान से विकसित होकर नहीं आती है, बल्कि चतुर्थ गुणस्थान से पतित होकर प्रथम गुणस्थान को प्राप्त करने के लिए इस अवस्था से गुजरकर जाती है, परन्तु यह भी नहीं कहा जा सकता कि आत्माएँ तृतीय गुणस्थान में विकसित होकर आ ही नहीं सकती, बल्कि प्राप्त कर सकती हैं। जो आत्माएँ चतुर्थ गुणस्थान में यथार्थ का बोध करके पुनः पतित होकर प्रथम गुणस्थान को प्राप्त करती हैं, वे हीं आत्माएँ अपनी उत्क्रान्ति काल में प्रथम गुणस्थान से सीधे तृतीय गुणस्थान में आती हैं, लेकिन जिन आत्माओं ने कभी सम्यक्त्व का स्पर्श नहीं किया है, वे अपने विकास में प्रथम गुणस्थान से सीधे चतुर्थ गुणस्थान में आती हैं। इस प्रकार मिश्र गुणस्थान जीवन के संघर्ष की अवस्था का द्योतक है। इस गुणस्थान की सबसे महत्त्वपूर्ण विशेषता है कि इस अवस्था में मृत्यु नहीं होती है। इस सन्दर्भ में आचार्य नेमीचन्द्र का कहना है कि मृत्यु उसी स्थिति में सम्भव होती है, जिसमें भावी आयुकर्म का बन्ध नहीं होता, अतः मृत्यु भी नहीं हो सकती। ४. अविरत सम्यक् दृष्टि गुणस्थान इस अवस्था में साधक को यथार्थता का बोध हो जाता है। उसका दृष्टिकोण सम्यक् होता है, फिर भी उसका आचरण नैतिक नहीं होता । उसका ज्ञानात्मक पक्ष सम्यक् होने पर भी आचरणात्मक पक्ष असम्यक् होता है। वह अशुभ को अशुभ मानता है, लेकिन अशुभ के आचरण से बच नहीं पाता। ऐसा इसलिए होता है कि इस अवस्था में वासनाओं को आंशिक रूप से क्षय किया जाता है और आंशिक रूप से दबाया जाता है। दबी हुई वासना पुनः प्रकट होकर आत्मा को यथार्थता की ओर अग्रसर कर देती है । 'महाभारत' में ऐसा चरित्र हमें भीष्म पितामह का मिलता है जो कौरवों के पक्ष को अन्याययुक्त, अनुचित और पाण्डवों के पक्ष को न्यायपूर्ण और उचित मानते हुए भी कौरवों के पक्ष में ही रहने को विवश है। जैन विचार इसी को अविरत सम्यकदृष्टि कहता है। ५. देशविरति सम्यक् - दृष्टि गुणस्थान- यह विकास की पाँचवी श्रेणी है, इस अवस्था में वासनाओं एवं कषायों पर आंशिक नियंत्रण की क्षमता का विकास होना शुरू हो जाता है। नैतिक आचरण की दृष्टि से यह प्रथम स्तर ही है । देशविरति का अर्थ है - वासनामय जीवन से आंशिक रूप से निवृत्ति । हिंसा, झूठ, परस्त्रीगमन आदि अशुभाचार तथा क्रोध, लोभ, मोहादि कषायों से आंशिक रूप से विरत होना ही देशविरति है । इस अवस्था का साधक साधना-पथ पर फिसलता तो है लेकिन उसमें सम्भलने की भी क्षमता होती है।
SR No.525061
Book TitleSramana 2007 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreeprakash Pandey, Vijay Kumar
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year2007
Total Pages242
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy