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________________ ७८ : श्रमण, वर्ष ५८, अंक २-३/अप्रैल-सितम्बर २००७ होता है अर्थात् ज्ञान स्वयं प्रकाश है। प्रकाश वस्तु को प्रकाशित करता है तथा उसी समय स्वयं को भी उसी प्रक्रिया में प्रकाशित करता है। वस्तु के प्रकाशित होने में वस्तु प्रकाश का विषय है, क्योंकि प्रकाश वस्तु पर पड़ता है लेकिन स्वयं प्रकाश अपना विषय नही है। 'ईश्वर प्रत्यभिज्ञा विमर्शनी' में आत्मा को स्वयं प्रकाश कहा गया है उसी के प्रकाश के सारा बाह्य जगत् प्रकाशित है। आत्मा स्वयं अपने को विषय नहीं बनाता है। यह बिना अपने को विषय बनायें स्वयं प्रकाश रूप में ज्ञात होता है। सुषुप्तावस्था में भी आत्मा को ज्ञान रहता है अन्यथा स्मृति आदि कैसे सम्भव होती? आत्मा का प्रकाश नित्य है। इसमें किसी प्रकार का व्यवधान नहीं है। तंत्र दर्शन में ज्ञान आत्मा का स्वरूप माना गया है बाह्य या आन्तरिक वस्तुएँ या जो भी दिखाई पड़ रहे हैं सभी आत्मा से ही प्रकाशित हैं और आत्मा स्वयं प्रकाश चैतन्य स्वरूप है। जैन दार्शनिकों के अनुसार भी जीव चैतन्यमय है, ज्ञान उसका साक्षात् लक्षण है। चेतना कोई आकस्मिक गुण नहीं है,वरन् जिस प्रकार सूर्य में प्रकाश, चन्द्रमा में चाँदनी स्वाभाविक धर्म हैं उसी प्रकार जीव में चेतना उसका धर्म है। यहाँ पर जैन दर्शन चार्वाक दर्शन से बहुत दूर हो जाता है, क्योंकि चार्वाक दर्शन के अनुसार चेतना आत्मा का एक आकस्मिक गुण है। जैन दार्शनिकों का मानना है कि जिस प्रकार सूरज अपने प्रकाश से दूसरी वस्तुओं को प्रकाशित करने के साथ ही वह अपने को भी प्रकाशित करता है, उसी प्रकार जीव/चेतना ज्ञान के माध्यम से दूसरों को तो प्रकाशित करता ही है, साथ-साथ अपने को भी प्रकाशवान करता है। यहाँ एक शंका हो सकती है कि यदि आत्मा और ज्ञान अभिन्न है तो उन दोनों में कर्तृ-करणभाव कैसे बन सकता है? इसका उत्तर देते हुए 'स्याद्वादमंजरी' में कहा गया है कि जिस प्रकार सर्प अपने शरीर से अपने को लपेटता है उसी प्रकार आत्मा अपने से ही अपने को जानती है। वही आत्मा जानने वाला है- कर्ता है और उसी आत्मा से जानता हैकरण है। कर्ता और करण का यह सम्बन्ध पर्यायभेद से है। आत्मा की ही पर्यायें करण होती हैं। उन पर्यायों को छोड़कर दूसरा कोई करण नहीं होता है। अतः आत्मा चैतन्य स्वरूप है। चेतना पूर्ण है, अनन्त चतुष्टय है। अनन्त चतुष्टय यानी अनन्त ज्ञान, अनन्त दर्शन, अनन्त आनन्द और अनन्त वीर्य। फिर भी जैसे सूरज के बादलों से आच्छादित होने पर प्रकाश की उपलब्धि नहीं होती, उसी प्रकार जीव में समस्त ज्ञान होते हुए भी कर्मादि द्वारा उत्पन्न व्यवधान के कारण ज्ञान का अभाव प्रतीत होता है और मनुष्य बन्धन में पड़ जाता है। जैसे बादल के हटने से सूरज चमकने लगता है, वैसे ही जब आत्मा
SR No.525061
Book TitleSramana 2007 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreeprakash Pandey, Vijay Kumar
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year2007
Total Pages242
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size9 MB
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