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श्रमण, वर्ष ५८, अंक २-३
अप्रैल-सितम्बर २००७
जैन परम्परा में मंत्र-तंत्र
डॉ० ऋषभचन्द्र जैन 'फौजदार' *
जैन परम्परा में प्राचीन काल से मंत्रविद्या का महत्त्वपूर्ण स्थान रहा है। इस विद्या का सम्बन्ध द्वादशांग वाणी के बारहवें अंग 'दृष्टिवाद' से है, जिसके परिकर्म, सूत्र, पूर्वगत, अनुयोग और चूलिका ये पांच भेद हैं। पूर्वगत के चौदह भेद हैं। उनमें विद्यानुवाद नामक दशवां पूर्व पन्द्रह वस्तुगत, तीन सौ प्राभृतों के एक करोड़ दश लाख पदों के द्वारा अंगुष्ठप्रसेना आदि सात सौ अल्पविद्याओं का, रोहिणी आदि पांच सौ महाविद्याओं और अन्तरिक्ष, भूमि, अंग, स्वर, स्वप्न, लक्षण, व्यंजन, छिन्न इन आठ महानिमित्तों का कथन करता है। वहां इन विद्याओं के साधन की विधि तथा फल का भी वर्णन है। 'तत्त्वार्थवार्तिक', 'षटखण्डागम' की धवला टीका, 'गोम्मटसार' जीवकाण्ड की जी०त०प्र० टीका और 'अंगपण्णत्ति' ग्रन्थों में अष्टांग महानिमित्तों का वर्णन विद्यानुवाद पूर्व में किया गया है। ‘कसायपाहुड' की जयधवला टीका और 'हरिवंशपुराण' में उन्हें कल्याणवाद पूर्व के अन्तर्गत बतलाया गया है।
'दृष्टिवाद' का पांचवां भेद चूलिका है। इसके पांच भेद हैं - १. जलगता, २. स्थलगता, ३. मायागता ४. रूपगता और ५. आकाशगता। जलगता चूलिका में जल में गमन, जल का स्तम्भन, अग्नि का स्तम्भन, अग्नि का भक्षण, अग्नि पर बैठना, अग्नि में प्रवेश करना आदि के कारणभूत मंत्र, तंत्र और तपश्चरण आदि का वर्णन है। स्थलगता चूलिका मेरु, कुलाचल, भूमि में प्रवेश करने, शीघ्र गमन करने आदि के कारणभूत मंत्र, तंत्र, तपश्चरण आदि का वर्णन करती है। मायागता चूलिका में मायावी रूप, इन्द्रजाल (जादूगरी), विक्रिया आदि के कारणभूत मंत्र, तंत्र, तपश्चरण आदि कहे गये हैं। रूपगता चूलिका सिंह, हाथी, घोड़ा, हिरण, नर, खरगोश, बैल, व्याघ्र आदि में रूप परावर्तन के कारणभूत मंत्र-तंत्र तपश्चरण आदि तथा चित्र, काष्ठ, लेप्य, उत्खनन आदि के लक्षण और धातुवाद, रसवाद, खदान आदि वादों का कथन करती है। आकाशगता चूलिका में आकाश में गमन करने के कारणभूत मंत्र-तंत्र तपश्चरण आदि का वर्णन किया गया है। उक्त पांचों चूलिकाओं में प्रत्येक के दो करोड़ नौ लाख नवासी हजार दो सौ (२०९८९२००) पद हैं, जिनमें विभिन्न मंत्र-तंत्रों का विशाल संग्रह किया गया है। * निदेशक, प्राकृत जैनशास्त्र और अहिंसा शोध संस्थान, वैशाली-८४४१२८ (बिहार)