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श्रमण, वर्ष ५८, अंक २-३/अप्रैल-सितम्बर २००७
पहले तीन प्रकरणों में क्रमशः ८९, ७७ और ३६ पद्य हैं। इस कृति में सूरिमंत्र, कलिकुंड-पार्श्वनाथ-मंत्र, पंचपरमेष्ठी-मंत्र-कल्प, ऋषिमंडल-स्तव-यन्त्र और कुछ अन्य मंत्रों का निरूपण किया गया है। वर्धमान-विद्या का उपयोग दीक्षा, प्रतिष्ठा आदि कार्यों में किया जाता है।२५ 'जिनरत्नकोष' में (पृ० ३४३-४४) भी इसका उल्लेख है। १२. अद्भुत-पद्मावती कल्प
इसके कर्ता यशोभद्र उपाध्याय के शिष्य श्रीचन्द्रसूरि हैं। एच० आर० कापड़िया ने इसका रचनाकाल विक्रम की १४वीं सदी लिखा है। ग्रन्थकार ने इसे छ: प्रकरणों में विभक्त किया है। इसके आदि के प्रथम दो प्रकरण अनुपलब्ध हैं। शेष 'भैरवपद्मावती-कल्प' के पहले परिशिष्ट के रूप में प्रकाशित हैं। तीसरे प्रकरण में सकलीकरण विधान, चौथे में यंत्र सहित पद्मावती देवी की आराधना का क्रम, पाँचवें प्रकरण में योग्य पात्र के लक्षण तथा छठवें प्रकरण में बन्धन मंत्र, परविद्याछेदन मंत्र आदि कहे गये हैं। इसमें प्रत्यंगिरा, अंबिका, ज्वालामालिनी और चक्रेश्वरी का उल्लेख है। ग्रन्थकार ने 'इन्द्रनन्दि' का भी उल्लेख किया है और उन्हें 'मन्त्र-वादि-विद्याचक्रवर्ति-चूड़ामणि' कहा है। यहाँ पद्मावती के विषय में कहा गया है कि हे देवी! तुम जैन परम्परा में पद्मावती, शैव परम्परा में गोरी, बौद्धागम में तारा, सांख्यागम में प्रकृति, भाट्टपरम्परा में गायत्री, कौलिक सम्प्रदाय में वज्रा हो और सम्पूर्ण विश्व में तुम्हारा यश व्याप्त है, इसलिए तुम्हें मेरा नमस्कार है।२६ १३. सरस्वती-कल्प
यह रचना गद्य-पद्यमय है। इसके कर्ता बप्पभट्टिसूरि हैं। इसमें प्रारम्भ में सरस्वती की स्तुति की गई है। पश्चात्, अर्चन मन्त्र, आत्मशुद्धि मंत्र, सकलीकरण, सारस्वत यंत्र-विधि कही गई है। आगे सरस्वती को सिद्ध करने की विधि वर्णित है। साथ में बप्पभट्टिसूरिकृत आम्नाय भी है। यहाँ कहा गया है कि मूलमंत्र का एक लाख जप तथा दशांश होम करने से सरस्वती सिद्ध हो जाती है। सरस्वती की सिद्धि से अद्वितीय विद्वता प्राप्त होती है। इसका प्रकाशन 'भैरव-पद्मावती-कल्प' के परिशिष्ट में हुआ है। १४. चिन्तामणि-कल्प
___ इसका प्रकाशन 'जैनस्तोत्र-सन्दोह' भाग-२, पृ० ३०-३४ पर हुआ है। इसमें कुल ४७ पद्य हैं। अन्तिम पद्य में रचनाकार का नाम 'धर्मघोषसरि' लिखा है तथा उन्हें मानतुंग का शिष्य कहा गया है। इसमें पार्श्वनाथ को प्रणाम करके 'चिन्तामणि कल्प' लिखने की प्रतिज्ञा की गई है। इसमें रचनाकार ने साधक का