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________________ बौद्ध एवं जैन दर्शन में व्याप्ति-विमर्श : १०५ होता, उसका अपने अप्रतिबद्ध विषय के साथ वहाँ अव्यभिचार नियम नहीं पाया जाता, किन्तु जो हेतु अप्रतिबद्ध नहीं होता, उसका अप्रतिबद्ध विषय के साथ कोई व्यभिचार न होने के कारण अव्यभिचार नियम पाया जाता है। इसी अव्यभिचार नियम को अविनाभाव कहा जाता है । व्याप्ति को हेतुबिन्दु में परिभाषित करते हुए धर्मकीर्ति कहते हैं कि 'व्यापक के होने पर ही व्याप्य का होना तथा व्याप्य के होने पर व्यापक का होना ही व्याप्ति है। '२१ व्यापक का अर्थ है साध्य तथा व्याप्य का अर्थ है हेतु। इस प्रकार साध्य के होने पर हेतु का होना तथा हेतु के होने पर साध्य का होना ही व्याप्ति है। इन्ही दोनों धर्मों को अन्वय और व्यतिरेक कहा जाता है। इसकी व्याख्या करते हुए अर्चट का कहना है कि 'व्यापक धर्म के रूप में जिस धर्मी में व्याप्य विद्यमान है वहाँ सर्वत्र व्यापक का सद्भाव ही होगा। व्याप्ति में इसी को व्यापक धर्मता कहा जाता है। इसीलिए व्यापक की अपेक्षा से व्याप्य में व्यापकता की प्रतीति होती है। व्याप्य धर्म के रूप में जब व्याप्ति विवक्षित होती है तब व्यापक के होने पर ही व्याप्य का सद्भाव पाया जाता है। अर्थात् जिस धर्मी में व्यापक रहता है, उसी धर्मी में व्याप्य भी पाया जाता है, व्यापक के अभाव में नहीं । बौद्ध दर्शन में व्याप्ति - निश्चय हेतु साधनों की चर्चा धर्मकीर्ति और उनके उत्तरवर्ती आचार्यों की कृतियों में स्पष्टतः पायी जाती है। धर्मकीर्ति के अनुसार व्याप्ति दो सम्बन्धों पर आधारित है - ( १ ) तदुत्पत्ति सिद्धान्त (२) तादात्म्य सिद्धान्त । किसी हेतु की किसी साध्य के साथ व्याप्ति हैं, उसके ज्ञान के लिए साध्य और साधन के 'स्वभावप्रतिबन्ध' का ज्ञान होना चाहिए। स्वभावप्रतिबन्ध दो प्रकार का होता है - तादात्म्य लक्षण और तदुत्पत्ति लक्षण । धर्मकीर्ति का कहना है कि हेतु के सपक्ष में दर्शन और विपक्ष के अदर्शन मात्र से व्याप्ति की सिद्धि नहीं हो सकती । व्याप्ति का निश्चय तो हेतु और साध्य के बीच वर्तमान अविनाभाव सम्बन्ध से होता है। 'हेतुबिन्दुटीका' में उल्लेखित है कि साध्य अर्थ के साथ लिंग का स्वभाव - प्रतिबन्ध अथवा अविनाभाव दो कारणों से होता है, या तो लिंग का साध्य से तादात्म्य रहता है अथवा फिर साध्य से उसकी उत्पत्ति होती है। जिस लिङ्ग का साध्य के साथ तादात्म्य या तदुत्पत्ति सम्बन्ध नहीं होता है वह लिङ्ग साध्य का अविनाभावी नहीं होता है, यथा प्रमेयत्व हेतु अनियतत्त्व का अविनाभावी नहीं होता है, क्योंकि उसका अनियतत्त्व साध्य के साथ न तादात्म्य है और न तदुत्पत्ति । २३ जहाँ हेतु साध्य के साथ तादात्म्य नहीं है अथवा हेतु साध्य से उत्पन्न (तदुत्पन्न ) नहीं हुआ है वहाँ हेतु की साध्य के साथ व्याप्ति नहीं होती । व्याप्ति के लिए आवश्यक है कि हेतु का साध्य के साथ तादात्म्य या तदुत्पत्ति सम्बन्ध हो । सहचार दर्शन मात्र से किसी हेतु की साध्य के साथ व्याप्ति नहीं कही जा सकती। २४
SR No.525061
Book TitleSramana 2007 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreeprakash Pandey, Vijay Kumar
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year2007
Total Pages242
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size9 MB
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