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________________ जैन साहित्य में वर्णित व्यापारिक साधन : ८९ सहायता से हवा कम होने पर भी जलपोत तीव्र गति से चलता था।२८ जलपोतों को रोकने के लिये लंगरों का प्रयोग किया जाता था।९ इन जालपोतों में एक ऐसा जलयंत्र लगा होता था, जिसको पैर से दबाने से यान दायें-बायें मुड़ सकता था।२० 'ज्ञाताधर्मकथांग' से ज्ञात है कि जलयानों में विविध प्रयोजनों के लिये स्थान नियत होते थे, यथा - यान के पिछले भाग में नियामक का स्थान, अग्रभाग में देवता की मूर्ति, मध्यभाग में काम करने वाले गर्भजों और पार्श्व भाग में नाव खेने वाले कुक्षिधरों का स्थान होता था।२१ ___निशीथचूर्णि' से ज्ञात होता है कि चलाते समय यदि कभी नाव में छेद हो जाता और उसमें पानी रिसने लगता तो मूंज और पेड़ की छाल को मिट्टी के साथ कूटकर वस्त्र में लपेट कर छेद भरा जाता था।२२ विशाल नावों के अतिरिक्त जलसंतरण के लिये अन्य साधन भी प्रयोग में लाये जाते थे, जिनमें कुंभ, तुम्ब, दत्ति, उडुप, पणि आदि मुख्य थे।२३ लकड़ी के चारों ओर घड़े बांधकर तैरने के लिये बनाई गई नाव को कुंभ,२४ रस्सी के जाल में सूखे हुए तुम्बे या अलाबू लगाकर बनाई गई नाव को तुम्ब२५, चमड़े के थैले, भेड़, बकरी की खालों में हवा भर कर उन्हें एकदूसरे से बांधकर तैयार की गई नाव को 'दत्ति' कहा जाता था।२६ पश्चिमी भारत में नदियों को पार करने का यह एक सुरक्षित साधन था। पाणिनी ने इसे 'भस्त्रा' कहा है।२७ लकड़ियों को आपस में बांध कर बनायी गयी नौका उडुप कहलाती थी।२८ पाणिनी ने इस प्रकार की लट्ठों या बांस के मट्ठों में बांधकर निर्मित नौका को 'भरडा' कहा है।२१ पण्णि नामक लताओं से बनाये गये टोकरों की नौका को ‘पण्णि' कहा जाता था।३० ___ इस प्रकार जैन साहित्य के अनुशीलन से पता चलता है कि प्राचीन काल में विभिन्न प्रकार के व्यापारिक साधन थे। जैसे-जैसे मानव का विकास होता गया, वैसे-वैसे उसके साधन भी बदलते गये। मानव, पशु, कृत्रिम साधन, जैसे- पोत, नौका, शकट आदि जो प्राचीन काल में व्यापारिक साधन थे, वे आज भी बहुत-सी जगहों पर देखने को मिलते हैं। लेकिन आज मानव इतना विकसित हो गया है कि जिस व्यापारिक वस्तु को पहुँचाने के लिए प्राचीन काल में दस दिन लगता था, वहीं आज अधिक से अधिक दो घण्टे लगते हैं। संदर्भ : १. वसुदेवहिण्डी, संघदासगणि, भाग-१, पृ०-१४९ २. थापर रोमिला, भारत का इतिहास, पृ०- ७९ ३. सूत्रकृतांगसूत्र १/३/२/१९७
SR No.525060
Book TitleSramana 2007 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreeprakash Pandey, Vijay Kumar
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year2007
Total Pages174
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size7 MB
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