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________________ ८० : श्रमण, वर्ष ५८, अंक १ / जनवरी-मार्च २००७ कहा है तथा मन से होने वाले ज्ञान को अनिन्द्रिय, क्योंकि जैन दर्शन में मन को अनिन्द्रिय माना गया है। इसी प्रकार ज्ञानावरण कर्म के क्षयोपशम अथवा क्षय से सीधा आत्मा द्वारा जो ज्ञान होता है वह मुख्य प्रत्यक्ष कहलाता है। अकलंक ने इसे अतीन्द्रिय ज्ञान कहा है। अवधिज्ञान. मनः पर्यवज्ञान तथा केवलज्ञान इसके अन्तर्गत आते हैं। जैन चिन्तक अनुमान, आगम, स्मृति, प्रत्यभिज्ञा और तर्क को परोक्ष प्रमाण के अन्तर्गत मानते हैं। साध्य से साधन का ज्ञान होना अथवा लिङ्ग से अनुमेय अर्थ का ज्ञान होना अनुमान है। 'न्यायावतार' में अविनाभावी लिङ्ग द्वारा साध्य के निश्चयात्मक ज्ञान को अनुमान कहा गया है। " अनुमान के जो दो भेद - स्वार्थानुमान और परार्थानुमान किये गये हैं उनका उल्लेख सर्वप्रथम न्यायावतार में ही मिलता है। क्योंकि इससे पूर्व अनुमान के इस प्रकार के भेदों का कोई भी उल्लेख जैन ग्रन्थों में नहीं मिलता है। साथ ही जैन प्रमाणमीमांसा में पूर्ववत्, शेषवत् एवं सामान्यतोदृष्ट भेदों को कोई स्थान ही दिया गया है। सामान्यतः स्व के लिए जो ज्ञान किया जाता है उसे स्वार्थानुमान कहते हैं। स्वार्थानुमान को परिभाषित करते हुए कहा गया है कि जिस अनुमान द्वारा प्रमाता स्वयं अनुमेय अर्थ का ज्ञान करता है वह स्वार्थानुमान कहलाता है। वादिदेवसूरि ने कुछ अलग रूप में ही स्वार्थानुमान को परिभाषित करने का प्रयत्न किया है। उन्होंने कहा है कि हेतु का प्रत्यक्ष होने पर तथा हेतु एवं साध्य के अविनाभावी सम्बन्ध का स्मरण होने पर साध्य का जो ज्ञान होता है, वह स्वार्थानुमान है।' वादिदेवसूरि द्वारा दी गई इस परिभाषा से स्पष्ट है कि हेतु का ग्रहण होने पर साध्य तथा हेतु के अविनाभाव सम्बन्ध या व्याप्ति का स्मरण होता है तत्पश्चात् तर्कप्रमाण के फल रूप साध्य का निश्चयात्मक स्वार्थानुमान प्रमाण उदित होता है। जो पर के लिए प्रयुक्त (अनुमान) होता है उसे परार्थानुमान कहते हैं। स्वार्थानुमाता जब प्रतिज्ञा, हेतु आदि से पर-पुरुष को साध्य का ज्ञान कराता है तो उसे परार्थानुमान कहते हैं। सिद्धसेन के अनुसार स्वनिश्चय के समान अन्य व्यक्तियों को निश्चय कराना परार्थानुमान है।" जहाँ तक परार्थानुमान के अवयवों की बात है तो मुख्य रूप से पक्ष और हेतु इन दो अवयवों की ही प्रधानता रही है लेकिन 'दशवैकालिकनिर्युक्ति' में दो, पाँच एवं दस अवयवों की चर्चा मिलती है । १० दो पक्ष और तु पाँच - प्रतिज्ञा, हेतु, दृष्टान्त, उपसंहार एवं निगमन । ) दस - प्रतिज्ञा, प्रतिज्ञाविशुद्धि हेतु हेतुविशुद्धि, दृष्टान्त, दृष्टान्तविशुद्धि, उपसंहार, उपसंहारविशुद्धि, निगमन एवं निगमनविशुद्धि ।
SR No.525060
Book TitleSramana 2007 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreeprakash Pandey, Vijay Kumar
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year2007
Total Pages174
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size7 MB
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