SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 84
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ भारतीय तर्कशास्त्र को जैन दर्शन का योगदान : ७७ प्रथम दृष्टि यापक हेतु- जिसे प्रतिवादी शीध्र न समझ सके ऐसा समय व्यतीत करने वाला विशेषण बहुल हेतु। स्थापक हेतु- साध्य को शीघ्र स्थापित करने वाली व्याप्ति से युक्त हेतु। व्यंसक हेतु- प्रतिवादी को छल में डालने वाला हेतु। लूषक हेतु- व्यंसक हेतु के द्वारा प्राप्त आपत्ति को दूर करने वाला हेतु। द्वितीय दृष्टि १. प्रत्यक्ष, २. अनुमान, ३. औपम्य (उपमान) और ४. आगम। यहाँ प्रत्यक्ष आदि जो चार भेद कहे गये हैं, वे मूलत: प्रमाण के भेद हैं और हेतु उन चारों में से अनुमान प्रमाण का अंग है, लेकिन वस्तु का यथार्थ बोध कराने के कारण शेष तीन प्रमाणों को भी हेतु रूप में यहाँ कह दिया गया है। तृतीय दृष्टि यह दृष्टि ही जैन दर्शन के हार्द को प्रस्तुत करती है। इस दृष्टि के अनुसार हेतु के वास्तव में दो ही भेद हैं- विधि रूप और निषेध रूप। विधि रूप को उपलब्धि हेतु कहते हैं और निषेध रूप को अनुपलब्धि हेतु। इन दोनों के भी अविरुद्ध और विरुद्ध की अपेक्षा से दो-दो भेद होते हैं, यथा- विधि साधक- उपलब्धि हेतु। निषेध साधक- उपलब्धि हेतु। निषेध साधक- अनुपलब्धि हेतु। विधि साधकअनुपलब्धि हेतु। 'प्रमाणनयत्तत्त्वालोक' में इन चारों के क्रमश: ६, ७, ७ और ५ भेद मिलते हैं। 'स्थानांगसूत्र'३ में उदाहरण, जिसे प्राकृत में ‘णाते' और संस्कृत में 'ज्ञात' कहा जाता है, के चार प्रकार बताये गये हैं १. आहरण- ऐसा उदाहरण जो सब प्रकार के उद्धृत पदार्थ से साम्य रखता है, अर्थात् सामान्य दृष्टांत। २. आहरण तद्देश- ऐसा उदाहरण जो किसी विशेष दृष्टि से साम्य रखता हो, अर्थात् एकदेशीय दृष्टांत। ३. आहरण तद्दोष- दोषपूर्ण उदाहरण। ४. उपन्यासोपनय- वादी के द्वारा किये गये उपन्यास के विघटन (खंडन) के लिए प्रतिवादी के द्वारा दिया गया विरुद्धार्थक उपनय। 'स्थानांगसूत्र'' में ही वाद-विवाद के निम्नलिखित छःचरण बताये गये हैं १. ओसक्कइत्ता- प्रकृत अर्थ से हट जाना। २. उस्सक्कइता- पराजित करने के लिए आगे आना। ३. अनुलोमइत्ता- प्रतिवादी को अपने अनुकूल कर लेना।
SR No.525060
Book TitleSramana 2007 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreeprakash Pandey, Vijay Kumar
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year2007
Total Pages174
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size7 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy