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________________ जैन ज्ञानमीमांसा : प्रमाणनयतत्त्वालोक के विशेष सन्दर्भ में : ६७ जो मतिज्ञानावरणीय कर्म का क्षयोपशम है, वही अर्थ सामान्य रूप से यहाँ विवक्षित है। इसी अभिप्राय से मति आदि शब्दों को पर्यायवाची कहा गया है।३९ अकलङ्क ने सम्यग्ज्ञान के दो भेद किए हैं- प्रत्यक्ष और परोक्ष। प्रत्यक्ष के भी दो प्रकार हैं- मुख्य और सांव्यवहारिक। मुख्य को अतीन्द्रिय प्रत्यक्ष और सांव्यवहारिक को इन्द्रियानिन्द्रिय प्रत्यक्ष नाम दिया गया है।४० इन्द्रिय प्रत्यक्ष के चार भेद किए गए हैं - अवग्रह, ईहा, अवाय और धारणा। अनिन्द्रिय प्रत्यक्ष को स्मृति, संज्ञा, चिन्ता और अभिनिबोध में विभक्त किया है। मतिज्ञान को 'प्रमाणनयतत्त्वालोक' में सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष के अन्तर्गत रखा गया है। इन्द्रियनिबन्धन और अनिन्द्रियनिबन्धन के नाम से सांव्यहारिक प्रत्यक्ष के दो भेद हैं।४१ मतिज्ञान के समान ही यह पंचज्ञानेन्द्रियों एवं मन से उत्पन्न होता है। दोनों के ही अवग्रह, ईहा, अवाय और धारणा नाम से चार भेद हैं।४२ ___ अवग्रह - अवग्रह ज्ञान की अव्यक्तावस्था है। उमास्वाति, जिनभद्र, सिद्धसेन एवं यशोविजय के अनुसार अवग्रह में निश्चयात्मक ज्ञान नहीं होता है।४३ पूज्यपाद देवनन्दी, अकलङ्क, विद्यानन्द, वादिदेवसूरि एवं हेमचन्द्र का मानना है कि अवग्रह में निश्चयात्मक ज्ञान होता है। अवग्रह को परिभाषित करते हुए उमास्वाति का कहना है कि इन्द्रियों के द्वारा अपने विषयों का आलोचनपूर्वक अव्यक्त अवधारण अवग्रह है।४ 'नन्दीसूत्र' में व्यंजनावग्रह एवं अर्थावग्रह के रूप में अवग्रह के दो भेद किए गए हैं।५ पदार्थ का ज्ञान होने के पूर्व जो उसका आभास होता है वह व्यञ्जनावग्रह है और अर्थावग्रह में पदार्थ का ग्रहण होता है और आभास होता है कि यह कुछ है। वादिदेवसूरि का कहना है कि विषय (पदार्थ) और विषयी (चक्षु आदि) का यथोचित् देश में सम्बन्ध होने पर सत्ता मात्र को जानने वाला दर्शन उत्पन्न होता है। इसके अनन्तर सबसे पहले मनुष्यत्व आदि अवान्तर सामान्य से युक्त वस्तु को जानने वाला ज्ञान अवग्रह कहलाता है।४६ आचार्य हेमचन्द्र भी इसी बात का समर्थन करते हुए कहते हैं कि इन्द्रिय एवं अर्थ का योग होने पर दर्शन उत्पन्न होता है, दर्शन के अनन्तर जो अर्थ का ग्रहण है वह अवग्रह है। ईहा - अवग्रह द्वारा जाने गए सामान्य विषय का विशेष रूप से निश्चय करने के लिए होनेवाली विचारणा ईहा है। 'प्रमाणनयतत्त्वालोक' में कहा गया है कि अवगृहीत अर्थ के विषय में विशेष जानने की इच्छा ईहा है।४७ यथा निद्रा में सोए हुए व्यक्ति को लगातार आवाज लगाए जाने पर उसका आवाज से सम्पर्क होने पर'कोई आवाज दे रहा है' इस रूप में ग्रहण तो अवग्रह है, किन्तु उसके अनन्तर यह आवाज किसकी है? यह निश्चित हो जाना ईहा है। ईहा ज्ञान संशयपूर्वक होता है, परन्तु संशय रूप नहीं है। इसिलए यह संशय से भिन्न है।८
SR No.525060
Book TitleSramana 2007 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreeprakash Pandey, Vijay Kumar
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year2007
Total Pages174
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size7 MB
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